भारतीय सवर्ण समाज खुद को प्रोग्रेसिव मानता है. उसे लगता है कि दुनिया में जितनी भी नई चीजें आती हैं, उनको या तो वो अंगीकार कर लेते हैं या फिर यह मानते हैं कि हमारी पुरानी सभ्यता में यह चीजें पहले से दी हुई थीं. यहीं से दुनिया ने सीखी हैं. अर्थात् यहां पर सवर्ण समाज में एक श्रेष्ठता का भाव है कि जो भी बेस्ट चीजें या बेस्ट प्रैक्टिसेज या जीवन जीने के बेस्ट तरीके हैं, वो या तो पहले से हमारी सभ्यता में दी हुई थीं या फिर हमने जल्दी से सीख ली हैं.
इसके बाद मन में भाव यह आता है कि दूसरों को बताएं. तो हम अपने यहां की माइनॉरिटी और दलित समाज को ज्ञान देना शुरु करते हैं. हमें लगता है कि इनमें वो भाव नहीं है. इनका सीखना जरूरी है. इसके लिए शब्द भी है- संस्कृताइजेशन. हमें लगता है कि कमजोर समाजों की अपनी कोई सभ्यता नहीं है और वह सवर्ण समाज का ही अनुकरण करेंगे. इसकी वजह से कन्फ्लिक्ट होता है. क्योंकि हर समाज का अपना कल्चर है, अपनी मेमरी है.
अगर हम इसे ध्यान से देखें तो यह कन्फ्लिक्ट वर्ग का नहीं है बल्कि सवर्ण समाज के अपने मन का है. जब आप बात यहां से शुरू करते हैं कि आप श्रेष्ठ हैं तो आपके सीखने की गुंजाइश कम हो जाती है. आपके क्रिएट करने की गुंजाइश कम हो जाती है. हां, आप एक उपभोक्ता बन के रह सकते हैं. और उपभोक्ता हमेशा ज्ञान देता है और मानने को तैयार नहीं होता कि उसकी वजह से उसके आस-पास का पर्यावरण नष्ट हो रहा है. यह एक तरीके का कल्चरल नारसिसिज्म है जिसमें आप यह मानते हो कि आपके आस-पास की हर चीज आपके उपभोग के लिए है. और बिना कुछ किये आप हर चीज के हकदार हैं. चूंकि आप पैदा ही श्रेष्ठ हुए हैं इसलिए बिना कुछ किये आपको हर चीज मिलनी चाहिए. सवर्ण समाज एक उपभोक्ता वर्ग बन के रह गया है और यहीं से सारी समस्या की शुरुआत होती है.
जैसे कि हमारी आजादी से पहले दुनिया के अन्य देशों में जनतंत्र आया. वहां पर समानता, एकता और बंधुत्व की भावना का प्रचार किया. आधुनिक समाज के मूल्यों जैसे धर्म निरपेक्षता, बराबरी, रिसोर्सेज पर बराबर अधिकार इत्यादि मूल्यों का प्रचार किया गया. साम्राज्यवाद और दो विश्व युद्धों के बाद इन चीजों का ज्यादा प्रसार हुआ ताकि दुनिया सुचारू रूप से चलती रहे और लोगों का जीवन स्तर सुधरे. एक देश में खोज हो तो वो दूसरे देश में भी पहुंचे. हां, इसमें व्यापार भी शामिल था. व्यापार से याद आया कि हम व्यापार करने विदेश नहीं जाते थे और कोई जाता भी था तो उसे जाति से बाहर कर देते थे.
तो हमने बाद में इन चीजों को स्वीकार किया और अपने यहां भी इम्प्लीमेंट किया. लेकिन फिर हमने यह मान लिया कि ये चीजें तो हमारी सभ्यता में पहले से थीं. ऐसा हमने इसलिए कहना शुरू किया कि हम अपनी कमजोरियां, अपनी गलतियां देखना नहीं चाहते थे. चूंकि हम पैदा ही श्रेष्ठ हुए हैं तो हम कैसे मान सकते हैं कि ये चीजें हमारे यहां थीं. हमने सफाई से खुद को इस जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया कि जब ये चीजें हमारे यहां थीं तो हमने खुद इम्प्लीमेंट क्यों नहीं किया, हमें दूसरे देशों से संविधान को समझने की आवश्यकता क्यों पड़ी.
जाहिर सी बात है कि हमने दूसरों से सीखा. उसी तरह पिछले सौ सालों में जो वैज्ञानिक प्रगति हुई, उसमें हमने दूसरों से सीखा और अपने यहां लागू किया. लेकिन हमने फिर कहना शुरू किया कि यह सब हमारी सभ्यता में पहले से था. पर इस प्रश्न का जवाब नहीं दिया कि तो हमने खुद लागू क्यों नहीं किया, क्यों हमें दूसरे देशों का इंतजार करना पड़ा.
यह एक उपभोक्ता का ही तर्क मालूम पड़ता है कि वो पहले सामान खरीद ले फिर कहे कि अगर मेरे पास टाइम होता या फलाने मुझे परेशान नहीं करते तो मैं घर में ही बना लेता. हमारा कल्चरल नारसिसिज्म इतना ज्यादा है कि अगर एक फंतासी कहानी बताएं जिसमें कि भूकंप आ गया है, सुनामी आ गई, मतलब बिल्कुल प्रलय आ गया है और हमारे यहां के सारे लोग जुटे हैं तो आप इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि कुछ लोग इसमें भी जातीय गौरव से ओत प्रोत रहेंगे और मानेंगे कि अगर कोई राहत सामग्री आती है तो उन्हें पहले मिलनी चाहिए. यह नहीं समझेंगे कि जब तक सारे लोग सुरक्षित नहीं होंगे, तब तक सभ्यता को बचाया नहीं जा सकता.
इस कल्चरल नारसिसिज्म की वजह से हमारा समाज नई चीजें जल्दी सीख नहीं पा रहा. चूंकि आप श्रेष्ठ हैं इसलिए आपको सीखने की आवश्यकता नहीं है और इसलिए आपको अपनी गलतियों का अहसास नहीं है. अगर कोई अहसास कराता है तो आपके नारसिसिज्म को चोट लगती है और आप पूरी तरीके से डिफेंड करने लग जाते हैं कि क्यों हमें सीखने की जरूरत नहीं है और हमें सब पता है बल्कि बाकी लोग झूठ बोल रहे हैं, उन्हें ज्यादा सीखना चाहिए, उन्हें हमसे सीखना चाहिए.
इस वजह से हम यह नहीं सीख पा रहे कि जब तक बराबरी नहीं होगी तब तक देश की पूर्ण प्रगति नहीं होगी. जो सपने सारे लोग देख रहे हैं कि हमारा देश ऐसा होगा, वैसा होगा, वो पूरा होगा लेकिन यह तब होगा जब सबकी योग्यता, सबकी मेहनत लगेगी जिसके लिए सबको समान अवसर मिलना जरूरी है. अगर हम श्रेष्ठता बोध के अहंकार में डूबे रहेंगे और अपनी गलतियों को दुरुस्त नहीं करेंगे तो कल्चरल नारसिसिज्म का इलाज संभव नहीं रहेगा.
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