अपने समाज में एक तरफ आप सरकारी नौकरियों के लिए युवाओं का प्रयास देखेंगे और दूसरी तरफ यह देखेंगे कि युवाओं को 9-5 की नौकरी से बहुत चिढ़ भी है. एक तरफ आप सोशल मीडिया पर युवाओं को सोशलिज्म, मार्क्स, डेमोक्रेसी पर बोलते पाएंगे लेकिन दूसरी तरफ यह उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि वो द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पढ़ेंगे. एक तरफ युवाओं को एकात्म मानववाद, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रवाद इत्यादि पर बोलते पाएंगे पर दूसरी तरफ यह पाएंगे कि इसके आगे वो बोल नहीं सकते. एक तरफ उनको सोशल मीडिया पर शिक्षक और शिक्षा की गुणवत्ता इत्यादि की बात करते पाएंगे और दूसरी तरफ उन्हें कॉलेज, यूनिवर्सिटीज और प्रोफेसर्स का मजाक उड़ाते पाएंगे. हां, इन सबमें एक बात कॉन्स्टैंट है- युवाओं को लगातार लग रहा है कि कुछ ऐसा करें कि लगे कि कुछ हो रहा है. यह एक लिरिकल वाक्य है पर क्या वाकई ऐसी ही स्थिति है.
युवाओं की मुख्य समस्या- आइडेंडिटी क्राइसिस
भारत की आबादी का कुल 22% हैं। 18-29 आयु के लोग यानी लगभग 30 करोड़ लोग, यही वो युवा हैं जिनमें से बहुत से लोग मूलतः सरकारी नौकरी खोज रहे हैं. इस युवा जनसंख्या में कई सारे वर्ग हैं- जैसे बड़े शहरों के युवा, छोटे शहरों के युवा, गांवों के युवा, अत्यंत पिछड़े गांवों और आदिवासी इलाकों के युवा. सरकारी नौकरी खोजने वाले यह लोग ज्यादातर छोटे शहर और गांवों से हैं.
मिलेनियल (80 और 90 के दशक में जन्म लेने वाले) और उनके बाद की जेनरेशन जेड के सामने जीवन एक चुनौती बनकर आया है. पच्चीस साल के शुभम उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से आते हैं. उनकी शुरुआती पढ़ाई बलिया के एक गांव और बलिया टाउन में हुई. वहां पर उन्होंने जो सीखा उसमें समाज में वर्चस्व बनाने का प्रयास था. इसमें जातिवाद, पुरुष-महिला विभेद, धर्म और परिवार को लेकर एक समझ बनी जो कि दिल्ली में आगे की पढ़ाई करने आने के बाद ध्वस्त हो गई. यहां पर इंस्टाग्राम और ट्विटर के जरिए शुभम को सोशलिज्म, लिबरलिज्म, राष्ट्रवाद, अमेरिका, एंड ऑफ हिस्ट्री और तमाम ऐसी पॉपुलर चीजों से सामना हुआ जिन्होंने उनके नजरिए को बदला. इसके बाद 2020 में उन्होंने पाया कि उनके साथ के कई लड़के शेयर में पैसे लगाकर पांच-छह गुना कर चुके हैं, साथ ही क्रिप्टो और एनएफटी जैसी बातें कर रहे हैं. यही नहीं, बहुत से लोग छोटे-छोटे वीडियो बनाकर बहुत से पैसे कमा रहे हैं.
इन सारी चीजों ने शुभम के सामने आइडेंडिटी क्राइसिस खड़ी कर दी है. रोजमर्रा के जीवन में शुभम एक अदद सरकारी नौकरी के लिए तैयारी कर रहे हैं लेकिन अपने वर्चुअल वर्ल्ड में शुभम सुबह से लेकर रात तक कई बार एक नई आइडेंडिटी के साथ सामने आते हैं- अगर गरीबों की बात आए तो मार्क्स को कोट करते हैं, पाकिस्तान की बात आए तो रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं को, अमेरिका और क्यूबा की तुलना करते हैं, कैंसिल कल्चर का हिस्सा बनते हैं और गांधी पर कई सारे प्रश्न खड़े करते हैं. साइंटिफिक माइंडसेट की बात करते हैं पर ज्यादातर वक्त एक कन्ज्यूमर के तौर पर सोशल मीडिया के इस्तेमाल में निकल जाता है. यहां पर एक और बात आती है. चूंकि शुभम सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और एक अच्छी खासी फॉलोविंग है, इस वजह से उनके वो दोस्त बहुत कन्फ्यूज हैं जो रिसर्च या किसी अकेलेपन के काम में लगे हैं. उन्हें लगता है कि शुभम बेहतर जिंदगी जी रहा है, वहीं शुभम को लगता है कि उन लोगों के पास जीवन जीने का एक मकसद है जो कि इनके खुद के पास नहीं है.
शुभम जैसे तमाम युवाओं की सोशल मीडिया प्रोफाइल अगर खंगाले तो पाएंगे कि वह एक मिसगाइडेड मिसाइल की तरह है जो हर तरफ हमला कर रहा है. इसमें अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं है. यह ठीक वैसे ही है जैसे जेपी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय बहुत से युवाओं ने पढा़ई छोडी़ थी, क्रांति का हिस्सा बने थे और बाद में उनके पास सिर्फ यादें बची थीं. क्योंकि फिर वह राजनीति का या समाज सुधार का हिस्सा नहीं बन पाये, बल्कि एक सामान्य व्यक्ति हो गये जिसे अपना जीवन चलाना था. पर चूंकि उन्होंने पढा़ई छोड़ दी थी तो उनके पास कुछ बचा नहीं.
सोशल मीडिया और आइडियोलॉजी का मसला
अपने नए उपन्यास In Beautiful World, Where Are You में लेखिका सैली रूनी का एक पात्र कहता है- ''पहले जब मैं ने कम्युनिज्म के बारे में बात की तो लोग हंस रहे थे. लेकिन अब सब वही बात कर रहे हैं.'' भारत के युवाओं के बारे में भी यह बात लागू होती है. 2007-08 में जब फेसबुक-ट्विटर भारत में फैलना शुरु हुआ, तब यही स्थिति थी क्योंकि बहुत कम लोग राजनीति-समाज के बारे में बोलते-लिखते थे लेकिन पांच साल के अंदर हर कोई मार्क्स, समाजवाद इत्यादि पर बात करने लगा. उस वक्त युवा सिर्फ नौकरी खोजते थे लेकिन एक दशक के बाद नौकरी के साथ उन्हें ढेर सारी चीजें चाहिए जहां वो खुद को व्यक्त कर सकें. लेकिन इस चीज ने एक रोचक स्थिति पैदा की है.
उस वक्त के चुने गये अधिकारी या प्राइवेट सेक्टर में बड़े पद हासिल करने वाले लोग बाद में सोशल मीडिया पर खुद को व्यक्त करने लगे. लेकिन यह व्यक्त करना उनके काम से बिल्कुल अलग है. ज्यादातर लोग मोटिवेशनल कोट्स शेयर करते हैं या फिर यह बताते हैं कि कैसे उन्होंने परीक्षा पास की होगी, यह किसी के जीवन का सबसे बड़ा अचीवमेंट हो. इसका दूसरा पहलू यह है कि वास्तविक काम करना और किसी काम का होना एक स्लो और बोरिंग प्रोसेस है. नाली खोदना या कहीं पाइप बिछाना फन वर्क तभी हो सकता है जब काम करने वाले किसी कैरेबियन टीम की तरह मस्ती करते हुए काम करें. पर ऐसा होता नहीं है.
इसी क्रम में सोशल मीडिया पर पॉपुलर एक अधिकारी ने पोस्ट किया कि उनका ट्रांसफर हो गया है. इस पर हजारों लाइक और हजारों रिट्वीट आए. यह देखकर आपको समझ नहीं आएगा कि लोग उनके ट्रांसफर से खुश थे, कि चलो अच्छा हुआ या फिर यह कि नई जगह पर बढ़िया काम होगा. आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि लोगों के जीवन और कार्य में भी कई तरह की आइडियोलॉजी मिसिंग है, उन्हें उत्तेजित करने वाली चीजें चाहिए.
अब कोई भी युवा खुद को पूरी तरह से किसी आइडियोलॉजी से जोड़कर रखे, यह संभव नहीं है. यह एरिक हॉब्सबॉम की मार्क्सवादी पीढ़ी नहीं है. एरिक हॉब्सबॉम ने नाजियों के वक्त कम्युनिज्म को निडर होकर चुना था लेकिन अपने अंतिम समय में रूस के विखंडन और कम्युनिस्ट सरकारों के अत्याचारों पर वो कमजोर पड़ गये. तो मिलेनियल और जेन जेड की नई पीढ़ी ने इस कमजोरी को ही देखा है पहले. इस दौर में बहुत से लोगों ने अपनी आइडियोलॉजी बदली है. तो युवाओं को वो सारी आदर्शवादी बातें तो अच्छी लगती हैं पर जीवन में उन्हें वो चीजें चाहिए जो कि एक लाइफस्टाइल क्रिएट करती हैं.
क्या करना चाहते हैं युवा?
आप सोशलिस्ट पॉलिसी को सपोर्ट करते हैं, गरीबों या किसी भी पिछडे़ व्यक्ति के लिए फेवरेबल स्थिति चाहते हैं लेकिन खुद उसमें शामिल नहीं हो पाते. इस डाइकॉटमी को सोशल मीडिया ने सबसे ज्यादा अच्छे से कैप्चर किया और यही उसकी सफलता का राज है. हम एक दिन में चाहे जितने तरह के मूड लेकर आएं, सोशल मीडिया उसके वैलिडेशन के लिए तैयार है. पर यह समस्या नहीं है. जरूरत है कि इस 'फेक एम्प्लायमेंट' को वास्तविक एम्प्लायमेंट में बदला जाए. जब हमारे पास ढेर सारे लोग हैं तो सारे लोग एक ही तरह के सेरिब्रल प्रोफेशन में शामिल नहीं हो सकते, दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं कर सकता. यह यूटोपियन सोच है जिसे पूरा करना संभव नहीं है. इसकी जगह संभव चीजों को लाना होगा.
एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत का युवा फाइनेंशियल स्थिति और स्वास्थ्य को लेकर ज्यादा चिंतित है. एक दूसरी रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय युवा क्लाइमेट को लेकर बात कर रहा है. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय युवा सोशल मुद्दों को लेकर ज्यादा सचेत है.
देश के निर्माण में, भविष्य के निर्माण में या फिर खुद के जीवन के निर्माण में, सरकारी नौकरी एक काम और आय का जरिया है परंतु इसे हर चीज से ऊपर रेट करना या अभीष्ट बताना धृष्टता होगी. यहां तक कि जो युवा सरकारी नौकरी में हैं, उनके जीवन के लक्ष्य भी अलग हो सकते हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है 2013 बैच के आईएएस रोमन सैनी जिन्होंने अपनी नौकरी छोड़कर अनएकेडमी की शुरुआत की. लेकिन रोमन पहले डॉक्टर थे, फिर सिविल सर्वेंट बने और फिर एंटरप्रेन्योर. यह क्रम अलग-अलग रूपों में ढेर सारे युवाओं के साथ जुड़ता है. कई बार लोग सफल होते हैं और कई बार असफल भी.
इसके पीछे एक बड़ी वजह है- भारत की पुरानी शिक्षा नीति जो कि पुराने समय के लिहाज से ठीक थी. परंतु 1992 के आर्थिक सुधारों और इंटरनेट के आगमन के बाद यह नीति बहुत पुरानी हो गई थी. भारत सरकार ने 2020 में नई शिक्षा नीति की घोषणा की जो कि नये वक्त की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाई गई है. आने वाली पीढ़ी के लिए यह एक सुखद समय होगा जब वो कई स्ट्रीम्स में प्रवीण होंगे और जीवन में कई चीजों की भरपाई कर सकेंगे. परंतु मिलेनियल और जेन जेड पीढ़ी के साथ यह नहीं होने जा रहा क्योंकि वो एक बदलाव के फेज में हैं जो कि एक स्वर्लिंग केओस ऑफ ब्लैकहोल की तरह है जो परपीचुअल मोशन मशीन के सिद्धांत पर काम कर रहा है. जिसे ऊर्जा के लिए किसी बाहरी स्रोत की जरूरत नहीं है बल्कि वो व्यक्ति के जीवन से ही ऊर्जा ग्रहण कर रही है.
भविष्य के लिए रोडमैप
इस क्रम में सबसे ज्यादा भयावह वह बातें लगती हैं जिसमें कोई युवा बताता है कि मैं पांच साल या दस साल से सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा हूं. तब आप सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि इस युवा ने अपने जीवन को कैसे जिया. अगर उसे नौकरी मिल भी गई तो उसका जीवन कैसा होगा. उन वर्षों की भरपाई वो कैसे करेगा. नौकरी से पहले उसे काउंसलिंग की जरूरत है. अगर हमें आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचना है तो कम से कम पचास साल का रोडमैप तैयार करना होगा. क्योंकि आने वाले वक्त में नौकरियां नये तरह की आएंगी और नये तरह के अवसर निकलेंगे. इनके लिए युवाओं का तैयार होना जरूरी है. जब तकनीक रियल लाइफ का कोई थ्री डी या फाइव डी मॉडल लेकर आएगी तो हम यह नहीं सोच सकते कि उस वक्त भी युवा पांच साल से सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा है.
30 साल पहले 1989-90 के आस पास दुनिया के 3 महत्वपूर्ण देशों में तीन बड़ी घटनाएं हुईं- जर्मनी में बर्लिन की दीवार का गिरना. चीन में छात्रों का डेमोक्रेसी के लिए आंदोलन और उसका कुचला जाना और भारत में बाबरी मस्जिद विवाद. उस दौर की राजनीति में इन तीनों घटनाओं का महत्वपूर्ण स्थान था. लेकिन तब से लेकर अब तक देखें तो सब कुछ बदल चुका है. जर्मनी नवीन ऊर्जा के क्षेत्र में, चीन कम्युनिज्म और कैपिटलिज्म के मिश्रण में और भारत एक डेमोग्राफिक डिविडेंड (18-29 के बीच की आबादी कुल आबादी का लगभग 22% है) के साथ बदल रहा है. भारत के युवा अब सिर्फ अपने आस-पास नहीं बल्कि इन देशों की ग्रोथ को भी देख रहे हैं. आज भारत में एलन मस्क और जैक मा के मीम्स बहुत ज्यादा शेयर होते हैं. एक आम युवा इनके बारे में जानता है और वैसा बनने की चाहत रखता है.
तो युवाओं में यह सिर्फ सरकारी नौकरी की बेचैनी नहीं है बल्कि बदलते वक्त में खुद की प्रतिभा के लिए एक प्लेटफॉर्म ढूंढने की बेचैनी है. भविष्य का रोडमैप हमारी चिंताओं पर आधारित होगा. जब हमारी मुख्य समस्या रोटी, कपड़ा और मकान थी, तो एक सरकारी नौकरी इसका सबसे बड़ा हल था. लेकिन अब हमारी चिंताओं में क्लाइमेट, तकनीक, बराबरी-गैर बराबरी का मसला और ऐसी तमाम चीजें आ गई हैं. भविष्य में रोजगार भी इन्हीं पर आधारित होगा. लेकिन हमारे पास दस साल का समय है क्योंकि 2031 में हमारी मीडियन एज 31 की होगी. उसके बाद हम युवा देश नहीं रह जाएंगे.
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