‘मूकनायक’ जैसी पत्रकारिता की जरूरत आज क्यों है?

‘मूकनायक’ जैसी पत्रकारिता की जरूरत आज क्यों है?
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'मूकनायक' के सौ साल पूरे होने की खुशी में देशभर में इसका आयोजन किया गया। देशभर के आंबेडकरवादियों ने एकजुट होकर देश के अलग-अलग हिस्सों में जश्न मनाया। 'मूकनायक' पाक्षिक अखबार था। इसे सौ साल पहले बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने शुरू किया था। 31 जनवरी 1920 को इसका पहला अंक छपा था। इस मौक़े पर दिल्ली में हुए इस कार्यक्रम में 'मूकनायक' जैसी पत्रकारिता की आज की ज़रूरत महसूस की गई।

बहुत कम ही लोग जानते हैं कि डॉ. भीमराव आंबेडकर एक पत्रकार भी रह चुके हैं। गौरतलब है कि जश्न मनाने को देशभर में 176 आयोजन किए गए। लखनऊ, दिल्ली, पटना, बनारस हिंदु विश्विद्यालय आदि जगहों पर ये दिन काफ़ी हर्षोउल्लास के साथ मनाया गया। इन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में बहुजन समाज के चिंतकों, विचारकों, सामाजिक कार्यकर्तओं और पत्रकारों ने शिरकत की।

दिल्ली में इसके लिए काफ़ी बड़ा आयोजन रखा गया। ये आयोजन दिल्ली के 15 जनपथ रोड़ पर मौजूद डॉ. भीमराव आंबेडकर ऑडिटोरियम के भीम सभागार में हुआ। इसका आयोजन 'दलित दस्तक' पत्रिका के संपादक अशोक दास ने किया। इस मौक़े पर आंबेडकरवादी विचारधारा से जुड़े लोग बड़ी संख्या में मौजूद रहे। पूरे कार्यक्रम के दौरान खचाखच भरे सभागार में बार-बार जय भीम के नारों से गुंजे। इसकार्यक्रम में कई प्रतिष्ठित विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता और दलित समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली जानी मानी हस्तियां शामिल हुईं।

इस मौक़े पर कार्यक्रम के आयोक और 'दलित दस्तक' पत्रिका के संपादक अशोक दास ने कहा कि वो इस दिन का इंतजा़र पिछले पांच-छह साल से इंतजार कर रहे थे। उन्होने कहा, 'जिस दिन से मैंने मूकनायक के बारे में जाना, उसी दिन से सोच लिया था कि मूकनायक और आंबेडकरी पत्रकारिता के सौवें साल पर इसकी खुशी में एक आयोजन जरूर करूंगा।' उन्होंने दलित दस्तक के शुरू करने से अब तक के सफ़र को साझा किया। उनका मानना है कि ये उनकी अकेले की मेहनत नहीं बल्कि हम सबकी मेहनत का असर है। इस मौक़े पर उन्होंने उन लोगों को आमंत्रित कर सम्मान दिया जो अलग अलग जगह से आंबेडकरी पत्रकारिता को जिंदा रखे हुए हैं।

उन्होंने कहा कि ऐसे पत्र-पत्रिकाओं को बहुत ज्यादा लोग नहीं जानते हैं, फिर भी वे पूरी लगन से बाबा साहेब के सपने को साकार करने में जुटे हैं। इसलिए उन्हें इस तरह के मंच पर समय समय पर सम्मान मिलते रहना चाहिए। यही नहीं दास ने भी कहा कि अभी भी हमें इस तरह की मीडिया और भी खड़ा करने की जरूरत है ताकि जहां की भी बात अभी भी सामने नहीं आई है वो आए। ग़ौरतलब है कि देश में वैकल्पिक मीडिया की ज़रूरत काफी समय से महसूस की जी रही है। अशोक दास का इशारा इसी तरफ था।

'दलित' शब्द की उत्पत्ति

इस मौके पर फिज़िक्स के प्रोफेसर और टीवी चैनलों पर दलितों का पक्ष रखने वाले प्रोफेसर सतीश प्रकाश ने एक अलग अंदाज़ में 'दलित' शब्द की उत्पत्ति के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि छह महीने पहले दलित शब्द को असवैंधानिक बताने का प्रोपेगंडा ज़ोश शोर से शुरु किया गया। ऐसे प्रोपेगंडा में अक्सर हमारे समाज के कई लोग भी फंस जाते हैं। उन्होने बताया कि 'दलित' शब्द की उत्पति हिंदी से नहीं हुई। जे जे मोसले 1832 में मराठी भाषा में प्रयोग करते हैं। जो शब्द इस समाज की पहचान के लिए बनाए गए थे उस से समाज खुद नफरत करता था। इसलिए अंग्रेजी साहित्य में दलितों को वर्णन करने के लिए इस शब्द की उत्पत्ति हुई। इसलिए इसके मायने भी अंग्रेजी जैसे हैं। दरअसल ये दलित नहीं बल्कि 'द लिट' है। लिट का अर्थ होता है झलना। यानि वे लोग जो अंधेरे से उजाले की ओर चले गए, वे 'द लिट' कहलाए। 'दलित' एक ब्रांड है जो हर कोई नहीं बन सकता।

प्रो. सतीश प्रकाश ने कहा कि मीडिया में दुख दर्द की ख़बर बिकती है। ये सब मीडिया ने बॉलीबुड से सीखा जब उन्होंने देखा कि फिल्मों में इमोशन्स काम करते हैं को मीडिया ने इसका फायदा उठाया। जाति है तो जातिवाद भी है। अगर सामने वाला जाति नहीं छोड़ रहा मतलब वहां जातिवाद है। सतीश प्रकाश ने अपने खास अंदाज में कहा, 'दलितों के लिए सामाजिक आंदोलन जरूरी है, लेकिन इस देश में हालात बदलने के लिए राजनैतिक नेतृत्‍व की आवश्‍यकता है। उन्‍होंने कहा कि राजनीति इस देश की सत्‍ता की चाबी है। यह सबको पता है कि लकड़ी की चाभी से लोहे का ताला नहीं खुलता। दलित समाज को इस ताले को खोलने के लिए उससे मजबूत चाभी खोजनी होगी।'

एक दिन हर बच्चा बनना चाहेगा 'दलित'

इसके अलावा प्रो. प्रकाश ने अपनी बात में ये भी जोड़ा कि अगले 25 से 30 साल बाद जब बच्चों से पूछा जायेगा कि बच्चे क्या बनना चाहते हो तो बच्चा पहले-दूसरे नम्बर पर भले ही डॉक्टर इंजीनियर कह दें लेकिन चौथे नंबर पर वो 'द लिट' यानि 'दलित' बनने के लिए कहेगा। उन्होंने उम्मीद जताई कि इसे लेकर समाज मे धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ेगी कि दि दलित होना अपमान नहीं बल्कि सम्मान की बात है।

कार्यक्रम में डॉ. आंबेडकर के समय की परिस्थितियों और उस जमाने में उन्‍हें अलग प्रेस की ज़रूरत पड़ने पर विस्‍तार से चर्चा हुई। वक्‍ताओं ने कहा कि इस संविधान के बनाने में बाबा साहेब की बड़ी भूमिका रही है। कार्यक्रम में यह भी चर्चा हुई कि आज के दौर में संविधान ख़तरे में हैं और इसे बचाने की ज़िम्मेदारी हम सबकी है। कार्यक्रम में कमला लाल नेहरू कॉलेज की प्रोफेसर कौशल पवार, द वायर की पत्रकार आरफ़ खानम शेरवानी भी मौजूद रहीं। इन सभी ने बारी बारी अपनी बात रखी और कैसे दलित पत्रकारिता और अम्बेडकरी पत्रकारिता को मुख्यधारा पत्रकारिता में पहचान दिलाने की जरूरत है, इस पर अपने विचार साझा किए।

चर्चित पत्रकार दिलीप मंडल, प्रो. विवेक कुमार, मोहन दास नैमिशराय, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो. कौशल पवार, द वायर की पत्रकार आरफ़ा खानम, श्योराज सिंह बैचेन, सम्यक प्रकाशन के संस्थापक शांति स्वरूप बौद्ध, वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, प्रोफेसर सतीश प्रकाश, चंद्रभान प्रसाद आदि लोग मौजूद रहे। इस दिन के जश्न में देशभर के कोने-कोने से आए सैकड़ों लोगों ने शिरकत की। इस खुशी के अवसर पर मंच पर केक भी काटा गया और गाने व कविताएं भी सुनाई गईं।

मुख्य अतिथियों के अलावा मंच पर उन पत्रकारों को भी आमंत्रित किया गया जो अपनी जाति के कारण प्रताड़ना झेल रहे हैं और जिन्होंने अपनी जाति को कभी छिपाया नहीं। इनमें अमर उजाला के अवधेश कुमार, इंडिया न्यूज़ के सुमित चौहान और पत्रकार मीना कोटवाल को भी आमंत्रित किया गया। जहां सभी ने पत्रकारिता में जाति के कारण झेला हुआ अपना अनुभव साझा किया।

  • मीना कोटवाल, पत्रकार

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