चुराचांदपुर। दो सप्ताह पहले राहत शिविर में आई आदिवासी महिला लिली (Lily) को जिला अस्पताल में डॉक्टरों ने बताया कि उसे गंभीर लीवर समस्या है. लिली का शरीर पूरी तरह सूख गया है, उसके देह में सिर्फ हड्डियों का ढांचा है. जिस कमरे में वह है उसमें लगभग 30 से ज्यादा लोग आईडीपी (आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों) के रूप में रह रहे हैं. सभी के लिए लिली का दर्द देख पाना बेहद मुश्किल हो रहा है.
ट्राइबल बाहुल्य चुराचांदपुर जिले में स्थित रेंगकाई सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्र में से एक है। यहां एक हाईस्कूल परिसर को रेंगकाई रिलीफ कैम्प (Rengkai Relief Camp) में तब्दील कर दिया गया है. इस रिलीफ कैम्प में कुल 191 पीड़ित पुरुष और 187 पीड़ित महिलाओं सहित 378 शरणार्थियों की संख्या है. इसमें कुल 72 पीड़ित परिवार शामिल हैं जो हिंसा के बाद अलग-अलग जगहों से भागकर यहां पहुंचे हैं. इन्हीं लोगों में एक लिली भी है.
द मूकनायक टीम उस कमरे में पहुंची जिसमें 45 वर्षीय लिली (Lily) रह रही है. लिली को कमरे में कुछ महिलाएं और कुछ बच्चे घेरे हुए हैं, पास पहुंचकर देखा तो लिली राहत शिविर में बने दाल-चावल के निवाले को बड़ी मुश्किल से निगल पा रही थी. पास बैठे लोग इस बात पर जोर दे रहे थे कि..... थोड़ा और खा लो!! हालांकि, वह खुद बैठकर खा पाने में भी असमर्थ थी. उसकी काया जीर्णशीर्ण अवस्था में है. रिलीफ कैम्प के लोग लिली को खोना नहीं चाहते क्योंकि वह पहले ही कई अपनों को, अपने घरों को खो चुके हैं. राहत शिविर की महिलाओं का लिली के पास पूरे दिन आना-जाना लगा रहता है, ताकि लिली को कुछ मदद की जरुरत हो तो वह उसकी मदद कर सकें।
बी-गंगटे (B-Gangte) गांव से रेंगकाई रिलीफ कैम्प (Rengkai Relief Camp) में आई लिली के कुल चार बच्चे हैं. लेकिन राहत शिविर में लिली के देखभाल के लिए उसके साथ सिर्फ उसका 12 वर्षीय सबसे छोटा बेटा लंजालिन (Lunjalin) है. गंभीर बीमारी की हालत में लंजालिन अपनी मां की देखभाल करता है. रिलीफ कैम्प में लंजालिन के उम्र के कई बच्चे हैं जो राहत शिविर के परिसर में खेलते हुए दिखे, लेकिन लंजालिन हमेशा अपनी मां के करीब ही रहता है. वह कभी बैठा हुआ तो कभी बगल में सो कर मां के साए से अलग नहीं होना चाहता। राहत शिविर और आसपास के लोगों से मिले थोड़े बहुत पैसों से वह बमुश्किल मां की दवाई ला पाता है.
बहुत देर बैठ पाने में असमर्थ लिली अपने बिस्तर पर लेटे हुए द मूकनायक को बताती है कि कुल चार बच्चों में उसके एक बेटे की मौत हो चुकी है. हिंसा के बाद दो बेटे कहां हैं कुछ भी पता नहीं है. “दवा कराने के लिए शादी शुदा बेटी पैसा देती है, जिससे इलाज चल रहा है. जब ज्यादा तकलीफ होती है तो रिलीफ कैम्प के लोग डॉक्टर के पास ले लाते हैं”, लिली ने बताया। इसके आगे लिली और ज्यादा बता पाने में असमर्थ रही.
लिली की हालत पर रेंगकाई रिलीफ कैम्प (Rengkai Relief Camp) के वालेंटियर एंथनी (Anthony) 40, ने बताया कि “हम लोग जब लिली को चुराचांदपुर जिला अस्पताल ले गए तब पता चला कि इसे लिवर की गंभीर समस्या है. हमारे पास उतने पैसे नहीं हैं कि इसका अच्छे से इलाज हो पाए. डॉक्टर कहते हैं कि स्टॉक में दवा नहीं है. इस राहत शिविर में लोगों की पीड़ाएं देख-देखकर हमेशा ऑंखें नम हो जाती हैं. हम और कर भी क्या सकते हैं,” एंथनी ने बड़े ही उदार मन से द मूकनायक टीम से कहा, “आप लोग मेरे यहां आये हैं, पता नहीं भोजन किये होंगे या नहीं। मैंने अभी राहत शिविर के लिए खाना बनवाया है, आप लोग भी खा लीजिए। मेरे पास आपको देने के लिए सिर्फ यही है”. राहत शिविर के वालेंटियर एंथनी की बातें भावुक कर देने वाली थीं.
रेंगकाई रिलीफ कैम्प (Rengkai Relief Camp) में दूसरी कुकी आदिवासी महिला की कहानी और उसकी बीमारी लिली से भी कहीं अधिक पीड़ादायक और भयावह है. 46 वर्षीया चिनखोनेंग बैट (Chinkhoneng Baite) को ब्रेस्ट कैंसर है. रिलीफ कैम्प के लोग उसकी बीमारी से भयभीत न हो इसलिए वह रिलीफ कैम्प के इर्द-गिर्द घरों की चौखटों पर सोकर, बैठकर दिन गुजारती है.
रेंगकाई रिलीफ कैम्प में पहुंचने के बाद कुछ शरणार्थियों ने बताया कि यहां एक कैंसर से पीड़ित महिला भी हैं. द मूकनायक टीम चिनखोनेंग बैट (Chinkhoneng Baite) से मिलने के लिए राहत शिविर के उस कमरे तक पहुंची जिसमें वह रह रही थी. चिनखोनेंग हमें वहां नहीं मिली। किसी बच्चे ने बताया कि वह राहत शिविर के बाहर एक घर के सामने बैठी हुई है. आखिरकार द मूकनायक टीम चिनखोनेंग को खोजते हुए उसके पास पहुंच गई.
एक घर के अंदर जाने वाली सीढ़ियों के पास बैठी चिनखोनेंग और एक लकड़ी के बेंच पर बैठे उसके पति जमखोथांग बैट (Jamkhothang Baite) 50, कुछ दस्तावेजों को उलट-पलट रहे थे. पास पहुंचकर पता चला कि वह जिन कागज के पन्नों को पलट रहे हैं वह सब चिनखोनेंग के मेडिकल टेस्ट रिपोर्ट और डाक्टरों द्वारा लिखी गई दवाईयों के पर्चे थे.
चिनखोनेंग बैट ने बताया कि उसके गांव के पड़ोस में बसे गांव, जिसमें 100 से अधिक घर थे, को मैतेई लोगों ने जला दिया। पड़ोस के गांव के घरों को जलता देख डर से जान बचाने के लिए अपना घर छोड़कर कुछ दिन आर्मी कैम्प में छिपी रही. चिनखोनेंग ने अपने बच्चों — एक बेटा (7), दो बेटियों (11-8) — को 9 मई को आर्मी कैम्प में छोड़ दिया था. एक सप्ताह बाद बच्चों को बेटी के पास भेज दिया। कुछ समय आर्मी कैम्प में रहने के बाद वह रेंगकाई रिलीफ कैम्प (Rengkai Relief Camp) में आ गई. एक लाइलाज बीमारी की हालत में वह पति के साथ तब से यहीं हैं. उसके पास न पैसे हैं न अपना घर. वह और उसके पति सिर्फ राहत शिविर के भरोसे जीवित हैं.
अपनी बीमारी के बारे में चिनखोनेंग द मूकनायक को बताती हैं कि, “3-4 सालों से इलाज चल रहा है। पिछले साल पता चला कि मुझे कैंसर है,” कंधे पर रखे मोफलर से आंसू पोछते हुए वह बेहद भावुक स्वर में आगे कहती है, “अब जिंदगी बहुत मुश्किल लगती है। बच्चियों की चिंता होती है। उनके साथ क्या होगा? मेरे बच्चों को कौन देखेगा? यह सब मुझे पागल बना देगा। कुछ भी सोच नहीं पा रही हूँ।”
चिनखोनेंग के पति जमखोथांग बैट (Jamkhothang Baite), जो कभी क्षेत्र में एक मशहूर प्रोफेशनल फुटबाल प्लेयर थे, की जिंदगी पर 2011 में ग्रहण लग गया। उसके बाद से वह फुटबाल खेलना छोड़कर किसानी - मजदूरी करने लगे थे। उनके पास भी अब कोई काम नहीं है। जमखोथांग बताते हैं कि राज्य में हिंसा की घटना से पहले वह पहाड़ी में लोगों की बकरियाँ चराते थे।
“बकरी के फर्म को बेचकर इलाज करा रहे हैं. फुटबाल खेल में जो पैसे मिले थे सब पत्नी की दवा में लगा दिया। सरकारी जिला अस्पताल पर डॉक्टर डाक्टर कहते हैं कि दवा स्टॉक में नहीं है. हमें तो कोई सरकारी मेडिकल सहायता भी नहीं मिल रही है. किसी तरह एक-एक दिन गुजार रहे हैं,” जमखोथांग बैट ने द मूकनायक को बताया।
जमखोथांग फुटबाल खेल को छोड़ने के पीछे की वजह बताते हैं, “मेरा एक मैतेई दोस्त था. वह मेरे फुटबाल में बढ़ते कैरियर से ईर्ष्या रखता था, क्योंकि उस समय फुटबाल खेल में मुझे राज्यस्तरीय खेलों में जगह मिलने लगी थी. यह सब देखकर मैतेई दोस्त ने फंसाने की कोशिश की और नक्सलवादी लोगों को पैसे देकर धमकी दिलवाने लगा कि फुटबाल खेलना छोड़ दो नहीं तो मार देंगे। उसके बाद 2011 से फुटबाल खेलना छोड़ दिया।”
जमखोथांग के बारे में रेंगकाई रिलीफ कैम्प (Rengkai Relief Camp) के वालेंटियर एंथनी (Anthony) ने भी यही बात बताई। एंथनी ने कहा कि जमखोथांग अपने समय का सबसे बेहतरीन फुटबाल खिलाडी था. उसका मुकाबला करने वाला कोई नहीं था.
चिनखोनेंग को कैंसर है, जो लाइलाज है। समय से डायलिसिस कराने भर के लिए अब पैसे नहीं हैं. उसकी जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है। द मूकनायक टीम ने ट्राइबल बाहुल्य क्षेत्र चुराचांदपुर में प्रवेश करने के लिए जो जोखिम उठाया था उसका आकलन सिर्फ चुराचांदपुर के निवासी ही कर सकते थे। चिनखोनेंग को भी इस बात का अंदाजा जरूर था, क्योंकि वह पहाड़ी के तनावपूर्ण माहौल की प्रत्यक्षदर्शी है. चिनखोनेंग के पास से वापस लौटने के लिए जैसे द मूकनायक टीम तैयार हुई, चिनखोनेंग ने धीमी आवाज में कहा, “क्या आप लोगों से हैंडशेक कर सकती हूँ?” ट्राइबल्स की पीड़ाओं को उनके बीच पहुंचकर रिपोर्ट करने के लिए चिनखोनेंग हमारा एहतराम करना चाहती थी। हमने चिनखोनेंग से हैंडशेक किया, जिसके बात वह तुरंत बोल पड़ी — “गॉड ब्लेस यू!!” चिनखोनेंग का यह फिक्राना भाव द मूकनायक टीम को भावुक कर देने वाला था। फिर हम में पीछे मुड़कर उसे देखने की हिम्मत नहीं बची।
चुराचांदपुर जिले के पहाड़ी में स्थित साइकॉट आईटीआई (Saikawt ITI) राहत शिविर में साढ़े तीन साल के सेथ (Seth) को चिकनपॉक्स निकले हुए हैं. सेथ का परिवार परेशान है, क्योंकि दवा का कोई इंतजाम नहीं है. राहत शिविर में सेथ की देखभाल उसकी मां मैरीजोना (Maryjona) 34, कर रही है. सेथ के पिता फिलिप (Philip) 39, दिहाड़ी मजदूर हैं. हिंसा के बाद तनावपूर्ण माहौल में काम भी मिलना बहुत मुश्किल है.
पैसे न होने की वजह से फिलिप अपने बेटे सेथ के चिकन पॉक्स का इलाज न करा पाने की वजह से बेबस हैं. उन्होंने बताया कि जिला अस्पताल पर डॉक्टर कह रहे हैं कि सरकारी दवा स्टॉक में नहीं हैं. सेथ की मां रात के अंधेरे में सेथ के शरीर पर निकले चिकनपॉक्स को टार्च की रोशनी में दिखाती है.
सेथ के इलाज के बारे में पूछे जाने पर उसकी मां मैरीजोना बताती है, “हमारे पास यहां चुपचाप पड़े रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. न पैसे हैं न काम है. हमारे घर को लूट लिया गया था, फिर उसे जला दिया गया. खुद को मैतेई बोलकर जान बचाकर यहां रिलीफ कैम्प में पहुंचे हैं.”
यहां यह उल्लेखनीय है कि मणिपुर राज्य के चुराचांदपुर जिले की कुल आबादी 330,100 (तीन लाख तीस हजार एक सौ) है. यह जिला पहाड़ी में बसा है जो ट्राइबल बाहुल्य क्षेत्र है. इतनी आबादी के बीच सिर्फ एक सरकारी अस्पताल — जिला अस्पताल — है. तीन लाख से अधिक लोगों की स्वास्थ्य देखभाल की जिम्मेदारी सिर्फ एक सरकारी अस्पताल के भरोसे है. इस तथ्य से यह सवाल खड़े होते हैं कि विकसित घाटी की बराबरी में अविकसित पहाड़ी क्षेत्र क्यों नहीं आ सका? जबकि हिंसा के बाद माहौल इतने तनावपूर्ण हैं कि कोई भी वाहन पहाड़ी में आसानी से प्रवेश नहीं कर सकती। सीधे शब्दों में कहें तो पहाड़ी में आने वाली खाने-पीने की चीजें, दवाईयां, पेट्रोल-डीजल आदि का आना लगभग ठप पड़ गया है. पहाड़ी में जो भी है उसके दाम आसमान छू चुके हैं. ऐसे में राहत शिविरों के आईडीपी (आंतरिक रूप से विस्थापित लोग) लाचार और बेबस हैं. जो गंभीर बिमारियों से ग्रसित हैं उनके पास मौत की राह देखने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है.
राहत शिविरों में दवाओं की किल्लत और शरणार्थियों के लिए राज्य सरकार की तैयारियों की जानकारी के लिए द मूकनायक ने चुराचांदपुर के डिप्टी कमिश्नर (डीसी) धारुन कुमार से मुलाकात की. दवाओं की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली पर हमने डीसी चुराचांदपुर से सवाल किया तो उन्होंने जवाब में कहा, “दवाओं की शार्टेज तो पूरे देश में है. लोगों को तरह-तरह की समस्याएं हैं. हो सकता है कि कभी किसी बीमारी की दवा न रही हो. बाकि दवा की उपलब्धता हमारे पास है.” दवाओं की कमी पर डिप्टी कमिश्नर ने इससे ज्यादा और कुछ नहीं कहा.
डीसी चुराचांदपुर के शुरुआती जवाब में राहत शिविरों में रह रहे शरणार्थियों की समस्याओं को लेकर थोड़ी कम गंभीरता दिखी। क्योंकि द मूकनायक ने अपनी पड़ताल में जो पाया वह बेहद भयावह और कष्टदायी था. लोग जिंदगियां जी नहीं रहे, बल्कि जिंदगी का एक-एक दिन किसी तरह से काट रहे हैं. वह अपने ही शहर में आईडीपी (आंतरिक रूप से विस्थापित लोग) हो गए हैं.
इस साल मई में दो समुदायों के बीच शुरू हुई जातीय हिंसा के बाद मणिपुर दो भागों में बंट गया है. घाटी में मैतेई और पहाड़ी में कुकी-जो समुदाय का ठिकाना है. न कुकी समुदाय घाटी में आ रहा है और न ही मैतेई समुदाय पहाड़ी में जा रहा है. दोनों क्षेत्रों को जोड़ने सीमाओं पर भारी सुरक्षाबलों का पहरा है. इसके अलावा, मणिपुर की पहाड़ियों तक आपूर्ति लाइनें दो समुदायों के बीच एक बफर जोन से होकर गुजरती हैं, जहां लगभग हर दिन गोलीबारी की सूचना मिलती है, जिससे इंफाल से कुकी बाहुल्य क्षेत्र पहाड़ी में दवाओं सहित आवश्यक वस्तुओं का परिवहन मुश्किल हो गया है। पहाड़ी के लोगों के पास जो है उसी में उनकी जिंदगी चल रही है.
आंकड़ें बताते हैं कि, चुराचांदपुर में कुल 4,239 एचआईवी पॉजिटिव मामले हैं, जिनमें से कुल 105 एचआईवी पॉजिटिव मामले अप्रैल-जुलाई 2022 की अवधि के दौरान पाए गए, और 2,072 लोग एआरटी उपचार ले रहे हैं. 28,500 एचआईवी ग्रसित लोगों के साथ, मणिपुर में भारत में एचआईवी के 1.04% मामले हैं, जो राज्य देश की कुल आबादी का 0.24% हैं।
हिंसा के बाद सामान्य दवाओं की कमी के साथ-साथ उच्च जोखिम वाले बिमारियों की दवाओं में भी चिंताजनक कमी देखी गई है. चुराचांदपुर एंटीरेट्रोवायरल केंद्र को आखिरी बार 24 जून को मणिपुर राज्य एड्स नियंत्रण सोसायटी से दवाएं मिलीं। केंद्र के परामर्शदाता ने अगस्त में एक मीडिया के हवाले से बताया था कि, 24 जून के बाद कोई आपूर्ति नहीं हुई है। क्योंकि केंद्र का प्रभारी अधिकारी, जो मैतेई था, मई में इंफाल भाग गया था।
केंद्र के परामर्शदाता ने बताया कि, “बच्चों के लिए आवश्यक लोपिनवीर 40 मिलीग्राम और रिटोनावीर 10 मिलीग्राम टैबलेट का कोई स्टॉक नहीं है। चूंकि स्टॉक खत्म हो गया है, इसलिए हम बच्चों को देने के लिए वयस्क गोलियों को आधा-आधा तोड़कर दे रहे हैं।"
यह स्पष्ट है कि कुकी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित एकमात्र सरकारी अस्पताल कई जीवनरक्षक दवाओं की कमी से जूझ रहा है. समय रहते अगर राज्य सरकार या केंद्र सरकार इसपर पहल नहीं करती है तो सैकड़ों की संख्या में लोगों की जानें जा सकती हैं।
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