13 दिसंबर, 2023 को, संसद में घुसपैठियों में से एक नीलम आज़ाद ने पुलिस स्टेशन ले जाते समय "जय भीम" का नारा लगाया। यहाँ "भीम" का तात्पर्य डॉ. बी.आर. अम्बेडकर से है।
इस नारे ने कई अन्य नारों की जगह ले ली है और यह केवल दलितों के संघर्ष तक ही सीमित नहीं है। अपना उद्देश्य बताते हुए आज़ाद और अन्य प्रदर्शनकारियों ने दलितों के संघर्षों का कोई संदर्भ नहीं दिया बल्कि बेरोजगारी जैसे सामान्य मुद्दों का हवाला दिया। इससे पता चलता है कि "जय भीम" केवल दलित आंदोलनों तक ही सीमित नहीं है और विभिन्न आंदोलनों की आवाज़ बन रहा है।
पी.टी. रामटेके के एक शोध पत्र के अनुसार , "जय भीम" का नारा अंबेडकर के करीबी सहयोगी बाबू हरदास ने दिया था। वे लिखते हैं, "हरदास 'जय राम-पति' से असहज थे - (मुझे लगता है कि यह संभवतः अंबेडकर को सम्बोधित करते हुए कहा था ) - जिससे उनका स्वागत किया गया था। एक मौलवी ने 'सलाम अलेकुम' का अर्थ समझाया,' जो मुसलमानों के बीच एक अभिवादन है । यहीं से उन्हें 'जय भीम' का विचार मिला। उन्होंने निर्णय लिया कि 'जय भीम' को अभिवादन के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए और इसका जवाब 'बल भीम' से दिया जाना चाहिए। उन्होंने 'भीम विजय संघ' के कार्यकर्ताओं की सहायता से अभिवादन के इस स्वरुप का प्रचार-प्रसार किया। बाद में, उन्होंने निर्णय लिया कि 'बाल भीम' उपयुक्त नहीं है और निर्णय लिया कि दोनों पक्षों को एक दूसरे का स्वागत 'जय भीम' से करना चाहिए।''
कम उम्र में, हरदास इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के मुख्य सचिव और सी.पी. और बरार के प्रभारी बन गए। वे 1937 में नागपुर के निकट कैम्पटी से आईएलपी (ILP) टिकट पर विधायक चुने गये। वह "पूना पैक्ट" पर हस्ताक्षर करने वालों में से एक थे और उन्होंने पूना पैक्ट समझौते के दौरान महात्मा गांधी के साथ चर्चा में भाग लिया था। वह बरार में "बीड़ी कामगार संघ" के संस्थापक थे। एक लेखक, विचारक, नाटककार और कवि, हरदास एक मराठी साप्ताहिक "महारत्था" और "चोखामेला विशेषांक" के संपादक भी थे। 1939 में 35 वर्ष की अल्पायु में उनकी मृत्यु हो गई। इतनी कम उम्र में मृत्यु होने के बावजूद भी "जय भीम" की गूँज से अमर हो गए।
यह एक संयोग ही है की संसद में घुसे उपद्रवियों ने 13 दिसंबर को ही संसद में जय भीम के नारे लगाए और ऐसा माना जाता है की 13 दिसंबर को ही "जय भीम" अभिवादन को पहली बार इस्तेमाल किया गया।
द मूकनायक ने सामाजिक कार्यकर्ता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता राजीव यादव से बात की। उनका मानना है कि "जय भीम" ने हाल के वर्षों में लोकप्रियता हासिल की है, खासकर 2014 में मोदी सरकार के दमन के खिलाफ दलितों ने विरोध प्रदर्शन के ज़रिये इसे और सशक्त बनाया। यह नारा रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या, ऊना आंदोलन और सुप्रीम कोर्ट द्वारा SC/ST एक्ट को कमज़ोर करने के खिलाफ हुए आंदोलन में यह नारा संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक बन गया। यह नारा संवैधानिक अधिकारों पे हमले के खिलाफ संघर्षों का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें अम्बेडकर स्वयं संविधान के प्रतीक हैं।
यादव का कहना है कि अंबेडकर संवैधानिक अधिकारों पर हमलों के खिलाफ प्रतिरोध के प्रतीक बन गए हैं। सीएए-एनआरसी विरोध प्रदर्शन के दौरान भी लोगों ने संविधान के उल्लंघन पर जोर देते हुए "जय भीम" के नारे लगाए।
द मूकनायक ने प्रबोधन पोल से बात की जो की कर्नाटक के मणिपाल सेंटर फॉर हयूमैनिटिज़ में सहायक प्रोफेसर हैं , उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि हरदास द्वारा यह नारा इज़ाद करने के बाद कैसे इसने दलित आंदोलन को शशक्त किया। 1930 के मध्य में, "जय भीम" दलित आंदोलन का एक प्रचलित शब्द और अम्बेडकरवादी संस्कृति की एक विशिष्ट पहचान बन गया। अम्बेडकर की मृत्यु से पहले ही इस सम्बोधन रुपी नारे ने एक अलग पहचान बना ली थी और "जय भीम" नाम का एक समाचार पत्र प्रकाशित भी होता था और उस समय के समाचार पत्रों में इस नारे का ज़िक्र भी होता था। "जय भीम" महज एक अभिवादन से आगे बढ़कर महाराष्ट्र में वैकल्पिक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का प्रतीक बन गया।
पोल यह भी कहते हैं कि "जय भीम" सिर्फ अंबेडकर का देवताकरण नहीं है। यह एक सांस्कृतिक दावेदारी भी है, दलितों की गरिमा भी इससे जुडी है और इसीलिए एक वैकल्पिक सांस्कृतिक आख्यान को रेखांकित करता है। वह बताते हैं कि वामपंथी इस नारे को हाईजैक कर रहे हैं, क्योंकि "जय भीम" का लाल सलाम और इंकलाब जिंदाबाद जैसे नारों के मुकाबले गहरा वैचारिक आधार है क्योंकि यह जनता के बीच से आया है, जबकि लाल सलाम जैसे नारे महज क्षणिक जोश का उदगमन करते हैं।
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