नई दिल्ली। हाल ही में, राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जमीन पर सोना देश भर में चर्चा का विषय बना। लेकिन राजधानी दिल्ली के सुंदर नर्सरी इलाके में बुलडोजर की कार्रवाई से बेघर हुए सैकड़ों परिवार इस कड़ाके की ठंड में खुले आसमान के नीचे हर दिन सोने को मजबूर हैं जिसकी चर्चा कहीं नहीं है। रामलला को तो घर मिल गया है लेकिन यहां रह रहे लोगों के सालों की मेहनत की कमाई से बनाए गए घरों को बुलडोजर से रौंद दिया गया है। ऐसे में अब ये लोग इस कंपकपाती ठंड में अपने ही टूटे हुए घरों के मलबे पर जिंदगी काटने को मजबूर हैं।
विश्व धरोहर स्थल हुमायूं के मकबरे, दिल्ली पब्लिक स्कूल (DPS) और सुंदर नर्सरी से सटी यह बस्ती दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड यानी (DUSIB) की उन 675 'संरक्षित' झुग्गी-झोपड़ी समूहों की लिस्ट में शामिल है, जिन्हें उनमें रहने वाले लोगों के सुरक्षित पुनर्वास के बिना नहीं हटाया जा सकता है। इन बस्तियों को ध्वस्त करते समय, अधिकारियों को 2015 की नीति 'दिल्ली स्लम और जेजे पुनर्वास और पुनर्वास नीति' में तैयार किए गए प्रोटोकॉल का पालन करना जरूरी है। लेकिन भूमि और विकास कार्यालय L&DO ने 21 नवंबर 2023 को प्रोटोकॉल का उल्लघंन करते हुए यहां बसे 500 से भी ज्यादा लोगों के घरों पर बुलडोजर चला दिया।
यहां रहने वाले लोगों का कहना है कि वे यहां सालों से रह रहे हैं और उनके सभी डॉक्युमेंट्स इसी पते पर हैं। उनके बच्चों के स्कूल में एडमिशन से लेकर वाहनों के रजिस्ट्रेशन तक तमाम जरूरी दस्तावेजों में यही पता दर्ज है। DUSIB के इस लिस्ट में इस बस्ती के 212 घरों का जिक्र है जिसे ‘संरक्षण’ प्राप्त था और इनमें रह रहे लोगों के पास घरों के नंबर प्लेट भी हैं। इस बस्ती को ‘सुंदर नगर बस्ती’ के नाम से भी जाना जाता है।
यहां हमारी मुलाक़ात 43 वर्षीय सोमपाल से हुई, जिनके घर को भी बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया गया था। अब वे इस कंपकपाती ठंड में खुले आसमान के नीचे अपने ही घर के टूटे हुए मलबे पर रात गुजारने को मजबूर हैं। अपनी आपबीती सुनाते हुए सोमपाल कहते हैं, "गरीब आदमी जाए तो कहां जाएं, किससे लड़े, सरकार से थोड़ी लड़ सकता है अकेला आदमी। हम तो सरकार से यही गुजारिश कर रहे हैं कि जितने भी गरीबों के घर टूटे हैं उनको एक-एक हाथ की जमीन दे दी जाए। कम से कम अपने बच्चे तो पाल ले इंसान! कहां जाएगा, किराए पर रहकर कब तक खाएगा?" ये कहते हुए सोमपाल बहुत भावुक हो जाते हैं।
ऐसी ही कुछ कहानी 40 वर्षीय फरज़ाना की है। फरज़ाना पहले कढ़ाई और लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा का काम करके अपना गुजारा करती थीं लेकिन घर टूटने के बाद से उनका यह काम छूट गया है। अब वह हर दिन अपने टूटे हुए घर के मलबे में से साबूत ईंटें निकालकर बेचतीं हैं और उसी से अपने बच्चों के पेट पालती हैं। फरज़ाना अपने आंचल से आंसू पोंछते हुए बताती हैं, "हमें सर छुपाने के लिए कुछ तो दे सरकार, जब से घर टूटा है काम पर भी नहीं जा पाती हूं, अब ईंट बेच कर जो मिल जाता है उसी से गुजारा चलाना पड़ता है।" पुनर्वास के बारे में पूछने पर वह बताती हैं, कोई मदद के लिए नहीं आया अबतक, यहां कोई सुविधा नहीं है, इतनी ठंड में यहां रहना बहुत मुश्किल है। आगे सरकार की 'जहां झुग्गी वहीं मकान' योजना का जिक्र करते हुए फरजाना कहती हैं, "मोदी जी ने कहा था, जहां झुग्गी वहीं मकान…हमारा तो यहां अपना घर था जिसे सरकार ने उजाड़ दिया, अब कहां रही झुग्गी, कहां है मकान? अब कोर्ट में हमारा केस चल रहा है, हम इसी उम्मीद में यहां बैठे हैं कि हमें न्याय मिलेगा और रहने के लिए छत दी जाएगी।"
यहीं अपने घरों के मलबे पर चादर बिछा कर 60 वर्षीय लाल सिंह अपने परिवार के साथ बैठे हैं। वे कहते हैं, "हमलोग बहुत परेशान हैं ठंड में। हमें यहां रहते हुए 30 साल हो गए, हमारे पास इसी पते से आधार कार्ड, बिजली बिल और वोटर कार्ड भी है…सब काम इसी पते पर होता है। लेकिन फिर भी हमारा घर तोड़ दिया गया, हमें सामान निकालने का भी वक्त नहीं दिया गया।" इसके बाद लाल सिंह हमें अपने सारे डॉक्यूमेंट्स दिखाते हैं।
इसी तरह अपने घर के मलबे पर बैठी 60 वर्षीय शिमला देवी कहती हैं, "आखिरकार हम भी तो एक जीते जागते इंसान हैं, हमें भी खाना चाहिए होता है, पानी चाहिए होता है और रहने के लिए एक ठिकाना भी चाहिए होता है। एक छोटी-सी चिड़िया का भी घोंसला टूटता है तो वह दुखी हो जाती है, अभी इस समय हमारा मन कितना खराब है। हमें कोई पूछने वाला नहीं है, कोई नेता नहीं आया, सरकार नहीं आई। आगे वह जोड़ती हैं, "हम अपने ही देश के अंदर इतने बेगाने हैं कि टूटे हुए पत्थर पर बैठे हैं। हम हिंदुस्तान किस काम के, फिर तो बेकार ही है। हमें कुछ भी नहीं होना चाहिए। जब वोटिंग होती है तो सब वोट मांगने आ जाते हैं, लेकिन अभी तो कोई भी नहीं आया। वोट के वक्त हम उनके दीदी, चाची और बहन जी हो जाते हैं, लेकिन उसके बाद कोई भी दिखाई नहीं देता। यहां अपनी दादी (शिमला देवी) के साथ बैठी 5 साल की तमन्ना हमें अपने टूटे हुए घर का फोटो दिखाती है और आगे कुछ पूछने पर शर्मा के अपना मुंह छुपा लेती है।
यहां चारों तरफ दूर-दूर तक टूटे हुए घरों के मलबे में ईंट-पत्थरों के नीचे दबा हुआ घरों का सामान दिखता है। यहां लोगों के कपड़े, चप्पल, बर्तन, बच्चों के खिलौने, किताबों से लेकर घरों के फर्नीचर और सोने के बिस्तर तक बिखरे पड़े हैं। यह दृश्य किसी भीषण भूकंप के बाद के किसी मंजर जैसा दिखाई देता है। जैसे एक ही झटके में पूरी बस्ती जमींदोज हो गई और जो चीज जैसे थी वैसी ही मलबे में दबी रह गई।
यहां हमारी मुलाकात अभी-अभी स्कूल से लौटी नैंसी से होती है। नैंसी चौथी कक्षा में पढ़ती है। यह पूछने पर कि आप रात में यहां कैसे रहती हैं, वह नीचे मलबे पर पड़े बिस्तर को दिखाते हुए बताती हैं कि रात को हम यहीं आग जलाकर सो जाते हैं। सुबह यहीं से स्कूल जाते हैं और वापस लौटकर यहीं आ जाते हैं। वह बताती हैं, "जब हमारे घर तोड़े जा रहे थे तब स्कूल में एग्जाम चल रहा था, इनलोगों ने हमारी किताब और पेंसिल भी इसी में दबा दिए। हमारी पढ़ाई बहुत डिस्टर्ब हुई।" नैंसी की ये बातें सुनते हुए ऐसा लगता है मानो किसी ने किताबों के साथ उसके सपनों पर भी बुलडोजर चला दिया हो।
यहीं नैंसी की 30 वर्षीय मां रीना मिलती हैं। रीना अभी काम से वापस लौटी हैं, वह सफाई का काम करती है। वह कहती हैं बच्चों के एग्जाम आने वाले हैं, ये सब होने के बाद वे एक महीने तक स्कूल नहीं जा पाए। "सरकार कहती है बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ। हम कहां से बचाएंगे बेटियों को जब हमारे पास छत ही नहीं है। आप माहौल देख रहे हो लड़कियों को यहां अकेले नहीं छोड़ सकते, काम पर जाती हूं तो ध्यान यहीं लगा रहता है और काम नहीं करेंगे तो खाएंगे क्या? रात को बच्चों को लेकर यहीं सो जाते हैं, बच्चे सोते रहते हैं और मैं बगल में आग जला रात भर बैठी रहती हूं। वह बहुत गुस्से में आकर आगे कहती हैं, हम यहां से कहीं नहीं जाएंगे, जब तक हमें रहने के लिए जगह नहीं दी जाएगी हम यहीं पड़े रहेंगे।"
सुंदर नर्सरी से सटी इस बस्ती में बुलडोजर की यह कार्रवाई बीते 21 नवंबर को हुई थी जिसे अब दो महीने से भी ज्यादा हो गए लेकिन इन्हें अबतक कोई मदद नहीं मिली है। दिल्ली में जैसे ही सर्दियां शुरू हुई, इनके सर से छत छीन ली गई और इन्हें बेघर कर दिया। दिल्ली की इस हाड़ कंपा देने वाली ठंड में ये लोग अब ऐसे ही घरों के मलबे पर रात गुजारने को मजबूर हैं। ठंड से बचने के लिए लोग यहीं बिखरे पड़े फर्नीचर की लकड़ियों को तोड़कर जला लेते हैं।
इस बारे में और जानकारी के लिए हमने सोशल एक्टिविस्ट इसरार खान से बातचीत की। इसरार हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क से जुड़े हुए हैं और लोगों के राइट्स और पुनर्वास के लिए काम करते हैं। वे बताते हैं, "यह बस्ती दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड यानी DUSIB की लिस्ट में आती है, यह नोटिफाइड बस्ती है। लेकिन इसके बाद भी इस बस्ती को बिना किसी पुनर्वास और मुआवजा के तोड़ा गया है। वह बताते हैं, इस ठंड में भी ये लोग यहीं रहने को मजबूर हैं। महिलाएं, बच्चियां सब यहां खुले में रह रही हैं, इनके पास अब न तो पानी है, न खाना है, न टॉयलेट है… यहां किसी भी प्रकार की कोई सुविधा नहीं है।" आगे इसरार कहते हैं कि अभी पता नहीं कि ये लोग यहां इस हालात में कब तक रहेंगे? क्योंकि पुनर्वास की मांग है और यह एक लंबी लड़ाई है। लोग अपनी आवाज उठा रहे हैं लेकिन इन्हें घर कब तक मिल पाएगा इसका कुछ भी पता नहीं है।" इसरार हमें बताते हैं कि यहां बसे 212 घरों के पास वीपी सिंह (भारत के पूर्व प्रधानमंत्री) के समय का टोकन भी है और इस एरिया का सर्वे भी हुआ है। आगे वे जोड़ते हैं, “सरकार कभी भी इन लोगों के लिये किफ़ायती घर नहीं बनाती है, वह करोड़ों के स्लॉट में घर बनाती है जिसे ये लोग नहीं ले सकते। अगर सरकार किफ़ायती घर बनाती है तो उसकी पहुँच सब तक होगी।”
इसके बाद यहां हमारी मुलाक़ात 28 वर्षीय आरिफ़ा से होती है। वह अपने दो छोटे बच्चों के साथ टूटे हुए फर्नीचर पर बैठी हैं। आरिफ़ा के पति गाड़ी चलाकर परिवार का गुजारा करते हैं। वह कहती हैं, क्या करें कहां जाएं… इतनी कमाई नहीं होती कि किराए पर कमरा ले सकें। इस बीच आरिफा की करीब साल भर की बेटी मेरी तरफ बहुत प्यार से देखती है और मुझसे मेरा माइक ले लेती है।
इन उजाड़े गए घरों में से एक घर 16 साल की अशप्यारा का भी था। अशप्यारा 10वीं में पढ़ती हैं। जब मैं उसके पास बात करने पहुंची तब वह अपने अंग्रेजी के नोट्स पढ़ रही होती है। वह बताती हैं कि "जल्द ही हमारे एग्जाम होने वाले हैं, घर टूटने की वजह से पढ़ाई बहुत डिस्टर्ब हुई, जिसके कारण अबतक सिलेबस खत्म नहीं हो पाया है। वह बताती है कि यहां इतने ठंड में खुले में रहने में बहुत परेशानी होती है। यहां इतना पॉल्यूशन है कि आंखों में जलन होने लगती है।"
अशप्यारा की 31 वर्षीय मां यास्मीन सरकार से सवाल करते हुए कहती हैं "जब हम यहां घर बना रहे थे तब सरकार कहां थी? तब उन्हें पता नहीं चलता है कि ये हमारी जमीन में कब्जा कर रहे हैं। हम गरीब इंसान हैं, हम सालों की मेहनत के बाद अपना पेट काट-काट कर इकट्ठा किए रुपयों से घर बनाते हैं। अगर सरकार को उजाड़ना ही है तो तभी क्यों नहीं हटा देती!"
नाम नहीं लिखने की शर्त पर एक 65 वर्षीय महिला बहुत आक्रोश में आकर कहती हैं, "अगर जमीन सरकार की है तो जब हम पासपोर्ट बनाने गए थे तो किसने लगाई उस पर मुहर? सरकार ने अपनी जमीन के नाम पर पासपोर्ट कैसे दिया, आधार कार्ड कैसे बनवाया, राशन कार्ड कैसे दिया? इनकम सर्टिफिकेट कैसे जारी हुए? हमारे बच्चों के डीपीएस में एडमिशन कैसे हुए? गाड़ियों के रजिस्ट्रेशन कैसे हुए? ऐसा कोई प्रूफ नहीं जो हमारे पास नहीं है। ये सब कागज जाली तो नहीं हैं."
DUSIB की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, जिस जमीन पर यह बस्ती बसी हुई थी उसका मालिकाना हक दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड के पास है लेकिन जब इसे उजाड़ा गया तो अचानक से L&DO का नाम सामने आ गया। यहां के लोगों का कहना है कि यह सबकुछ एक सोची समझी साजिश के तहत किया जा रहा है और किसी भी तरह से 40-50 सालों से यहां रह रहे लोगों को बेदखल करने का प्रयास किया जा रहा है। इस जमीन पर कथित अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई को दो महीने से अधिक समय हो गया है लेकिन अब तक यहां से न तो मलबा हटाने का काम शुरू हुआ है और न ही यहां किसी तरह की बेरिकेडिंग की गई है। यहां जिन लोगों के मकान टूटे हैं, वे भी यहां से जाने को तैयार नहीं हैं। यहां बैठे लोगों को उम्मीद है कि उनकी आवाज सुनी जाएगी और उनको फिर से रहने के लिए कोई जगह दी जाएगी। हालांकि, इनके प्रति प्रशासन और सरकार के उदासीन रवैये को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा कब होगा.
पूरी वीडियो यहां देखें-
द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.