नई दिल्ली: यूपीएससी वह परीक्षा जिसे पास करने के लिए हर साल लाखों छात्र तैयारी करते हैं, लेकिन इन लाखों छात्रों में से सफलता मिलती है केवल कुछ हजार को। और 90% से अधिक छात्र सफल नहीं हो पाते। यह सुनने में लग सकता है कि यह एक हारने वाली दौड़ है, लेकिन दिल्ली के मुखर्जी नगर ओल्ड राजेंद्र नगर और देश के कई हिस्सों में आपको इस परीक्षा की तैयारी करते हुए छात्र मिल जाएंगे। लेकिन क्या हो जब परीक्षा करवाने वाले संस्थान से ही बड़ी गलतियां होने लगे। क्या हुआ जब जिम्मेदारियों का बोझ हिम्मत की कमर तोड़ने लगे। क्या हो जब सामाजिक दबाव आपके सपनों पर भारी पड़ने लगे। क्या हो जब खुद की अंतरात्मा ही यह पूछने लगे कि कहीं गलती तो नहीं कर दी गांव छोड़ शहर आने की? इन सभी सवालों का रोजाना जवाब देते हैं यह छात्र और किताबों के बोझ तले अपने सपनों को मरने नहीं देते। हमने बात की ऐसे ही कुछ छात्रों से जो बताते हैं कि रोजमर्रा की परेशानियों को तो झेलना आसान है, मगर सीसैट और यूपीएससी की गलतियों को झेलना बिल्कुल आसान नहीं है। पेपर में कभी सिलेबस के बाहर के सवाल आते हैं तो कभी ऐसे सवाल आते हैं, जिनका केवल तुक्का ही लगाया जा सकता है।
गाज़ीपुर उत्तर प्रदेश के रहने वाले देश दीपक बताते हैं, यूपीएससी उतना बड़ा चैलेंज नहीं है जितना बड़ा चैलेंज दिल्ली जैसे महानगर में सरवाइव करना है। यूपीएससी तो दूसरे नंबर पर आता है पहला नंबर समस्याओं की लिस्ट में है मुखर्जी नगर के कमरों के रेंट का। 1 महीने का 7 से 8 हज़ार रुपया रेंट भरना हर किसी के बस की बात नहीं। उसके ऊपर से अपने खुद के खर्चे मैस की फीस मिलाकर महीने भर का 15 से 18 हज़ार रुपए का खर्चा है। देश दीपक बताते हैं कि वह ग्रामीण इलाके से आते हैं दिल्ली में आकर उन्होंने जाना की पीने का पानी भी खरीद कर पीना पड़ेगा।
वे कहते हैं "हमारे गांव में और दिल्ली में जमीन आसमान का फर्क है, जहां हमारे गांव में कुछ खास सुविधाएं उपलब्ध नहीं है, वहीं दिल्ली में सभी कुछ उपलब्ध है, पर सब कुछ उपलब्ध होने की एक कीमत भी होती है, सब कुछ उपलब्ध होने का मतलब यह नहीं है कि सब कुछ मिल ही जाएगा, हर चीज मैं महंगाई इतनी है की उपलब्ध होते हुए भी मिल नहीं सकती ", देश दीपक के पिता पुलिस विभाग में कार्यरत हैं, वे कहते हैं कि हम दिल्ली आकर तो कम से कम तैयारी कर पा रहे हैं, लेकिन 2020 में कोरोना के बाद समझ में आया कि गांव के बच्चे किस तरीके से तैयारी करते होंगे। उनके पास कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। इस सब के बावजूद यूपीएससी से जुड़ी हुई एक बड़ी समस्या के बारे में देश दीपक बताते हैं।
वह कहते हैं कि 2023 के प्रश्न पत्र में भाग्यवाद और तुक्केबाजी को बढ़ावा दिया गया है। एक सवाल का उदाहरण देश दीपक देते हैं, निम्न में से कौन से देश के साथ यूक्रेन अपनी सीमा साझा करता है, बुल्गारिया, चेक रिपब्लिक, लिथुआनिया, रोमानिया, हंगरी। ऑप्शन होते हैं A केवल दो, B केवल तीन, C केवल चार D केवल पांच। सही उत्तर है केवल दो, लेकिन कौन से दो यह यूपीएससी को कैसे पता चलता है? इस सवाल का सही उत्तर होगा रोमानिया और हंगरी। किसने यह सही उत्तर सोचकर केवल दो पर टिक किया है और किसने नहीं यह बात यूपीएससी को कभी पता नहीं चल सकती। ऐसे सवाल केवल अपवाद नहीं है 2023 के प्रश्न पत्र में ऐसे 45 सवाल पूछे गए थे।
उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद डिस्ट्रिक्ट के रहने वाले दीपक पाल, जोकि यूपीएससी की तैयारी करने से पहले एक कॉर्पोरेट जॉब कर रहे थे, अच्छा खासा वेतन भी पा रहे थे। दीपक आर, एफ इंजीनियर के तौर पर देश के कई शहरों में काम कर चुके हैं। 2020 में उन्होंने अपनी जॉब छोड़ कर यूपीएससी की तैयारी शुरू की। हमने उनसे पूछा कि जब वे जॉब कर रहे थे तो वह अपने परिवार को सपोर्ट कर रहे थे, 2020 में स्टूडेंट लाइफ में वापस आना और परिवार पर दोबारा आश्रित हो जाना कितना मुश्किल था? वे बताते हैं कि 2020 से पहले भी यूपीएससी की तैयारी कर रहे थे। 2020 में उनके छोटे भाई की नौकरी रेलवे विभाग में लग गई तो परिवार की जिम्मेदारियां उनके छोटे भाई उठाने लगे। दोनों भाइयों ने बात कर यह फैसला लिया दीपक यूपीएससी की तैयारी करेंगे और उनके छोटे भाई इस फैसले में उनका समर्थन करेंगे। यह सामाजिक तौर पर स्वीकार्य होना बहुत मुश्किल है, छोटा भाई परिवार चलाए और बड़ा भाई पढ़ाई करें। दीपक बताते हैं कि यह एक बेहद मुश्किल फैसला था मेरे भाई के लिए भी इस वक्त स्थिति बेहद मुश्किल है। वह घर भी चलाते हैं मुझे पैसा भी भेजते हैं।
शायद समाज की नजरों में मैं आदर्श बेटा नहीं हूं। लेकिन एक सपना है जिसके पीछे मैं दौड़ रहा हूं। हर साल लाखों छात्र असफल हो जाते हैं, और लगभग एक प्रतिशत से भी काम का ही सिलेक्शन हो पता है। क्या दीपक जैसी दौड़ में शामिल है वह हारने वाली दौड़ तो नहीं? इस बात पर दीपक कहते हैं कि मैं आया ही था इस मंशा से कि सफर आसान नहीं होगा। लेकिन इस सफर को और मुश्किल यूपीएससी ने बना दिया है। दीपक बताते हैं कि सीसैट जो की 2011 में आया था, उसमें इस साल भारी कमियां देखने को मिली है। यूपीएससी कहता है कि गणित के सवालों में केवल दसवीं कक्षा तक का गणित पूछा जाएगा, लेकिन जो सवाल सामने आए वह पूरी तरीके से सिलेबस के बाहर थे। टॉपिक जैसे परम्यूटेशन कांबिनेशन, हाई लेवल का प्रोबेबिलिटी और तमाम भी सवाल जो कैट और जीएमटी के प्रश्न पत्रों में आए हैं।
वे 2023 और उससे पहले के यूपीएससी के सीसैट के प्रश्न पत्र में देखने को मिले हैं। यूपीएससी का पहले कहना कि गणित केवल दसवीं कक्षा तक का पूछा जाएगा और फिर इस लेवल के सवाल पूछे जाना सरासर छात्रों के साथ अन्याय है। दीपक निगवेकर कमेटी का हवाला देते हुए यह बताते हैं कि 2014 में ही सीसैट को हटाने की रिकमेंडेशन दी जा चुकी है। अंत में वह कहते हैं कि यूपीएससी एक संवैधानिक संस्था है ऐसी गलतियों से उनकी विश्वसनीयता पर असर पड़ता है। उन्हें एक ऐसा पेपर बनाना चाहिए जो किसी को भी अनफेयर एडवांटेज और डिसएडवांटेज ना दे, सभी को बराबर मौका मिलना चाहिए पेपर पास करने का।
उत्तर प्रदेश अलीगढ़ की रहने वाली शीलू बताती है कि वह एक हिंदी मीडियम सरकारी स्कूल से पड़ी है। अलीगढ़ से दिल्ली आना और दिल्ली आकर यूपीएससी की परीक्षा देना वही हिंदी माध्यम से, अब एक बहुत बड़ा चैलेंज बन गया है। पहले तो अलीगढ़ से निकलना ही बहुत बड़ा काम था, पहले परिवार को समझाना रिश्तेदारों को और फिर समाज को कि मैं गांव से बाहर जाकर पढ़ सकती हूं कुछ बन सकती हूं अपनी पहचान हासिल कर सकती हूं। परिवार के लिए एक लड़की की एकमात्र मंजिल शादी के अलावा कुछ नहीं होती। समाज में आज भी बेटी को पराया धन बोझ जैसे शब्दों से बुलाया जाता है। कहा जाता है कि हमें जिम्मेदारी पूरी करनी है। यह जिम्मेदारी बेटे के समय पर पूरी नहीं की जाती। वे आज भी कहते हैं दिल्ली में क्यों हो घर आ जाओ या फिर कुछ और कर लो क्यों केवल यूपीएससी ही करना है। लेकिन जो सपना देख चुके हैं उसको बुलाए कैसे।
घर वालों को आज भी भरोसा नहीं है कि मैं कुछ कर सकती हूं, वे आज भी मुझे एक इंसान से पहले लड़की मानते हैं और यह मानते हैं कि मैं यूपीएससी नहीं क्लियर कर सकती। यूपीएससी के छात्रों के बीच प्लान बी की चर्चा खासा दिखाई देती है। अगर यूपीएससी नहीं हुआ तो क्या होगा? क्योंकि ज्यादातर का नहीं हो पता है। शीलू भी अपने प्लान बी के बारे में सोच रही है, वह कहती हैं कि मैं ह्यूमैनिटीज और हिंदी माध्यम की पृष्ठभूमि से आता हूं हमारे पास विकल्प भी बहुत ज्यादा नहीं होते। इसीलिए अंत में स्टेट पीसीएस हे ।
हनुमंत कुमार पटेल जो की एक नेत्रहीन एस्पायरेंट है, और 2020 से यूपीएससी की तैयारी कर रहे हैं। जो दौड़ पूरी दुनिया के लिए, मुश्किल है वह हनुमंत के लिए एक अतिरिक्त स्तर पर कठिन हो जाती है। हनुमंत कैसे हैं हाल तो हमारे देश में दृष्टिबाधित और दिव्यांगों के लिए पर्याप्त शैक्षणिक संस्थान नहीं है। उसके ऊपर यूपीएससी की लापरवाही हमारे लिए सफर को और ज्यादा मुश्किल बना देती है। यूपीएससी की पढ़ाई करने के लिए जो किताबों की जरूरत पड़ती है, भोजपुरी तरह बरेल लिपि में उपलब्ध नहीं है। केवल एनसीईआरटी की ही किताबें बरेल में मिलते हैं। (बरेल वह लिपि है को कि दृस्टि हीनों के किए बनाई गई थी जिसे उँगलियों से छू कर पढ़ा जाता है।) केवल एनसीईआरटी की किताबों से यूपीएससी की तैयारी नहीं की जा सकती है। ऐसी सैकड़ों किताबें हैं जिनकी जरूरत हमें पड़ती है। एक तो दिल्ली में रहकर यूपीएससी की तैयारी करना बड़ा चैलेंज है। ऊपर से सी सेट हमें क्वालीफाई तक नहीं करने दे रहा है, जबकि तमाम डिपार्टमेंट में दिव्यांगों की आरक्षित सीटें खाली पड़ी हुई है।
जब डिपार्टमेंट में कोई दिव्यांग है ही नहीं तो फिर दिव्यांगों के बारे में सोचेगा कौन? हम इक्वल रिप्रेजेंटेशन की बात करते हैं हम भी समाज का एक हिस्सा है। हमारे रिप्रेजेंटेशन का क्या? आज भी 73 सीट्स डिसएबल कैंडीडेट्स की खाली पड़ी हुई है। यूपीएससी के अनुसार पांच छात्र जो की नेत्रहीन है और 5 छात्र अन्य डिसेबिलिटी वाले सेलेक्ट किए जाने हैं। और करीब 65 छात्र ऐसे होने चाहिए जो की मेंस लिखें। आज तक ऐसा नहीं हुआ है। हम लोग केवल आठवीं क्लास तक गणित पढ़ते हैं, यूपीएससी दसवीं कक्षा तक का गणित पूछता है, और एग्जाम में कैद और जीमैड स्तर केसवाल आते हैं, बताइए यह कहां तक न्याय प्रिय है? हनुमान से जब हमने सवाल किया क्या वे सोचते हैं कि यूपीएससी की तैयारी करने का फैसला लेकर उन्होंने गलती तो नहीं कर दी? वह कहते हैं कि "डर उनको को लगता है जिनके पास खोने के लिए कुछ हो, मेरे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है और पानी के लिए सारा आसमान पड़ा है"
बिहार सहरसा से आने वाले सतीश यादव बताते हैं कि वह अपने गांव के पहले ग्रेजुएट हैं, पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो कि पढ़ने के लिए अपना गांव छोड़कर शहर आए। नहीं तो हमारे यहां केवल लोग मेहनत मजदूरी करने के लिए ही शहर जाते हैं। सतीश के पिता के साथ खेती किसानी करके घर का पालन-पोषण होता है। जब सतीश ने यूपीएससी करने की इच्छा अपने पिता के सामने जाहिर की तो उन्होंने समर्थन के स्वर में ही जवाब दिया। लेकिन एक सामान्य किसान परिवार के पास इतनी क्षमता नहीं दिल्ली भेज कर अपने बेटे को पढा पाए। सतीश बताते हैं कि मुझे दिल्ली भेजने के लिए हमें अपनी जमीन बेचनी पड़ी। परिवार पर पहले से भी कुछ रुपयों का कर्जा था जो कि ब्याज लग कर 2 से 3 गुना हो गया था, जमीन बेचकर पहले कर्ज निपटाया गया और फिर ₹50000 लेकर मैं दिल्ली आ गया।
दिल्ली पहुंचने पर मैं किसी को नहीं जानता था यह भी नहीं जानता था कहां रहना है कैसे दिन बिताने हैं पढ़ाई कैसे करनी है। कुछ लोगों से पता चला कि मुखर्जी नगर में यूपीएससी की तैयारी होती है। यहां आकर कुछ दोस्त बने तो दिल्ली घर जैसा लगने लगा। लेकिन मुझे खर्च का अंदाजा नहीं था, जो ₹50000 खर्च लाया था वह तो 3 महीने में ही खत्म हो गए। दोबारा पैसों की जरूरत पड़ी तो जिनका करदा लौट आया था उन ही दोबारा कर्ज लेकर पिताजी ने मुझे पैसे भेजें। सतीश घर में सबसे बड़े और सबसे बड़े बच्चों की जिम्मेदारी परिवार में ज्यादा होती है। एक उम्र के जाने के बाद परिवार की समाज की अपेक्षा होती है कि अब पिता के कंधे का बोझ बेटा संभालने के लायक हो गया है। लेकिन जब खुद को एक कमरे में अकेले बैठकर तैयारी करते हुए देखता हूं, तो ऐसा लगता है कि पिताजी के कंधे का बोझ मैं नहीं संभाल पाऊंगा। मेरे दो भाई और है जो की मां और पिताजी के साथ रहते हैं।
कुछ दिनों पहले मां की तबीयत खराब थी, उनके शरीर का आधा हिस्सा सुन्न पड़ने लगा है। मैं चाहता हूं कि उनका दिल्ली लाकर एम्स में इलाज करवा सकूं। उनका फोन आया उन्होंने कहा कि यह दोनों तो मुझे नहीं देखते अब तुमने भी बात करनी काम कर ती है। मां का यह कहना मेरे लिए एक ऐसा मौका था जहां पर निराशा सामने खड़ी थी, और मैं खुद को निहत्था महसूस कर रहा था। यह वाकया बताते हुए सतीश भावुक हो जाते हैं। कोई भी इस देश में स्ट्रगल करना डिजर्व नहीं करता, किसी का भी स्ट्रगल अनोखा नहीं है, सिस्टम से लड़ते हुए सिस्टम को समझते हुए लंबे समय में सभी का स्ट्रगलएक दुखद कहानी में बदल जाता है। सतीश एक हिंदी पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र हैं और उनकी पढ़ाई भी हिंदी माध्यम से ही हुई है। अभी बताते हैं कि सी सेट में अंग्रेजी माध्यम को ज्यादा प्रमोट किया है जो आंकड़ा 2010 में हिंदी और अंग्रेजी के अभ्यर्थियों का लगभग आधा आधा हुआ करता था। आज 65% अभ्यर्थी अंग्रेजी माध्यम में मुख्य परीक्षा लिखते हैं, और कई बस 17% अभ्यर्थी हिंदी माध्यम से, और बाकी अन्य भाषाओं में। यूपीएससी को एक ऐसा पेपर डिजाइन करना चाहिए जो की सभी के लिए बराबर हो ना कि ऐसा जो किसी एक पक्ष को ज्यादा फायदा पहुंचा।
यह उन सभी छात्रों की कहानी थी जो की आगे जाकर देश के आईएएस, आईपीएस, आईएफएस और आईआरएस ऑफीसर बनेंगे, यह वही है जो देश का भविष्य कहलाते हैं यह वही है जो इस देश को सबसे ज्यादा ताकतवर देश बनाते हैं। यह देश के युवा भारत पूरे दुनिया में सबसे ज्यादा युवा आबादी वाला देश है, जो भारत के विकास में, इंजन का काम कर सकते हैं। अगर गाड़ी का इंजन ही कमजोर हो तो फिर गाड़ी कितनी दूर चल पाएगी इसका अंदाजा आप ही लगा सकते हैं। हर तरीके की आर्थिक सामाजिकऔर भौतिक समस्या का सामना करते हुए, इन अभ्यर्थियों के मन में निराशा का एक कण भी मौजूद नहीं है। वे आगे भी यूपीएससी उतने ही मन से लिखेंगे जितने मन से आज तक लिखते हैं। लेकिन जिस संस्थान पर भरोसा करके वह अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण साल एक एग्जाम को दे रहे हैं वह संस्थान ही उनकी सुनने को तैयार नहीं है। पहली नजर में देखने पर इन सभी छात्रों के द्वारा बताई गई समस्याएं वाजिब हैं। लेकिन यूपीएससी का इन समस्याओं को अनसुना करना पूरी तरह गैर वाजिब लगता है। सरकारों से संस्थाएं हैं, सरकार जनता चुनती है. यह युवा भी जनता का हिस्सा है। जनता को नजरअंदाज करना राजनेताओं का पुराना किस्सा है।
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