नई दिल्ली। “वित्त वर्ष 2024-25 के लिए पेश किया गया अंतरिम केंद्रीय बजट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कथन “सबका साथ” को झुठलाता नज़र आ रहा है। समावेशी विकास और समता केवल एक आह्वान बनकर रह गया है और सामाजिक स्तर पर यह दलित और आदिवासी समाज के आर्थिक अधिकारों के साथ धोखाधड़ी के समान है। दलित और आदिवासी समुदाय हमेशा से ही बजट की वजह से निराश होते आए हैं और आज भी उनके हाथ निराशा ही लगी है।”
यह बातें शुक्रवार यानी 2 फरवरी को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में राष्ट्रीय दलित मानव अधिकार आंदोलन की ओर से आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस ‘दलित आदिवासी बजट विश्लेषण 2024-25’ में कही गई। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में वित्त वर्ष 2024-25 के लिए 1 फरवरी को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा संसद में पेश किए गए बजट का दलित और आदिवासी नजरिए से विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। इस कॉन्फ्रेंस को दलित आर्थिक अधिकार आंदोलन के बीना पल्किकल, आदिकांदा सिंह और ग्लोबल फोरम के एन पॉल दिवाकर ने संबोधित किया।
इस बजट विश्लेषण में अनुसूचित जाति और जनजाति में आने वाले दलित और आदिवासी समुदायों के उत्थान के लिए बजट आवंटन को अपर्याप्त बताया गया। साथ ही इन समुदायों के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए कुछ जरूरी कदम भी सुझाए गए।
किसके लिए कितना बजट?
वर्ष 2024 का कुल केंद्रीय बजट 5108780 करोड़ रुपये है, जबकि अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए कुल 165598 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया और अनुसूचित जनजाति के लिए यह आवंटन 121023 करोड़ रुपये है। इसमें से लक्षित धनराशि जो सीधे दलितों के कल्याण के लिए होगी वह 44282 करोड़ रुपये है और आदिवासियों के लिए 36212 करोड़ रुपये है।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में वक्ताओं ने कहा कि दलित और आदिवासी समाज के लिए मामूली सा आवंटन हमारी धारणा को और भी मजबूत करता है कि बजट, जिसे आर्थिक सुधार के लिए एक रोडमैप के रूप में प्रचारित किया जाता है वह भारत में दलित और आदिवासी समुदायों की तत्काल जरूरतों को पूरा करने और उनकी चिंताओं को दूर करने में विफल रहा है। यह बजट मौजूदा समानताओं को यथावत रखता है और सामाजिक न्याय और समावेशिता की प्रगति में बाधा डालता है। हम इस तथ्य से भी व्यथित हैं कि केंद्र सरकार जाति के पूरे आख्यान को बदलकर दलितों के मुद्दों की उपेक्षा करने की कोशिश कर रही है।
दलित और आदिवासी समाज के विरूद्ध अत्याचार बढ़े लेकिन बजट नहीं
इस विश्लेषण में दलितों और आदिवासियों के विरूद्ध अत्याचारों में हो रही वृद्धि के बावजूद उनकी न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए बजट में अनदेखी करने पर भी चिंता व्यक्त की गई। वर्ष 2022 में दलितों और आदिवासियों के विरुद्ध अत्याचारों की एक मजबूत लहर देश के विभिन्न हिस्सों में देखी गई है।
पिछले वर्ष की तुलना में दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामले 13.12% बढ़कर 57,582 मामले हो गए, जबकि पिछले वर्ष यह संख्या 50,900 थी। इसी तरह, आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों में वृद्धि हुई है और इनकी संख्या 10,064 दर्ज की गई जबकि 2021 में यह संख्या 8,802 थी। इन चिंताजनक आंकड़ों के बावजूद, राज्य दलितों और आदिवासियों के लिए न्याय तक पहुंच के मौलिक अधिकार को सुनिश्चित करने में विफल रहा है।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा गया कि न्याय प्रणाली के भीतर दलितों और आदिवासियों की विशिष्ट जरूरतों को पूरा करने के लिए बजटीय आवंटन कम किया गया है और इस वर्ष अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 में नागरिक अधिकारों के संरक्षण अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए केवल 560 करोड़ रुपये आवंटित है।
इसी तरह दलित और आदिवासी महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामलों में भी इस वर्ष वृद्धि देखी गई है। हम दलित और आदिवासी महिलाओं के कल्याण और सुरक्षा के लिए जेंडर बजट में निधियों के अनुचित आवंटन पर भी गहरी चिंता व्यक्त करते हैं। राष्ट्रीय दलित मानव अधिकार आंदोलन की ओर से दलित और आदिवासी महिलाओं की जरूरतों पर विशेष ध्यान देने और संसाधनों का अधिक न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करने के लिए पुनर्मूल्यांकन का आग्रह किया गया।
‘द मूकनायक’ से बातचीत करते हुए दलित मानवाधिकार पर राष्ट्रीय अभियान (NCDHR) की जनरल सेक्रेटरी बीना पल्लिकल ने कहा, “बजट में दलित और आदिवासी महिलाओं के लिए बहुत कम राशि आवंटित किया है। पिछले पाँच साल में दलित, आदिवासी महिलाओं के खिलाफ हिंसा बहुत बढ़ गए हैं लकिन फिर भी बजट में उनका ध्यान नहीं रखा गया है।“
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