बिहार: 75 प्रतिशत आरक्षण सीमा को चुनौती देने वाले तर्कों में कितना दम! जानिए संवैधानिक स्थिति और अतीत में न्यायालयों के रुख

बिहार राज्य सरकार द्वारा आरक्षण की सीमा को 75 प्रतिशत करने के कानून को चुनौती देते हुए इसे तर्कसंगत नहीं बताया है. एक ओर जहाँ बिहार में पिछड़ी जाति की आबादी सबसे ज्यादा है, वहीं यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्य सरकार के इस फैसले पर न्यायालय का क्या रुख होगा!
बिहार में 75 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा
बिहार में 75 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा ग्राफिक- द मूकनायक
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नई दिल्ली: बिहार में जातिगत जनगणना के बाद जातियों की संख्या के आधार पर सरकार की तरफ से आरक्षण की सीमा में बदलाव करने (75 प्रतिशत कर दिया गया) और इसे बढ़ाने का फैसला लिया गया है. जहाँ, फैसले में बिहार के सभी सियासी दल सरकार के साथ नजर आए, सरकार की तरफ से इसे सदन से भी पास कराकर राज्यपाल की सहमति के लिए भेज दिया गया. राज्यपाल से भी इसको मंजूरी प्रदान कर दी गई. वहीं, इस आरक्षण के फैसले को पटना हाईकोर्ट में चुनौती भी दे दिया गया है.

सिविल सोसायटी के सदस्यों, गौरव कुमार और नमन श्रेष्ठ द्वारा चुनौती देते हुए कहा गया है कि आरक्षण की सीमा को बढ़ाने के लिए जो तर्क दिए गए हैं वह तर्कसंगत नही दिख रहा है. पटना हाईकोर्ट में सरकार के फैसले को चुनौती देते हुए कहा गया है कि आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 75 प्रतिशत करना वाजिब नहीं है. ऐसे में सरकार के इस फैसले की समीक्षा होनी चाहिए.

स्त्रीकाल के संपादक, और बिहार की राजनीति पर बेहतर समझ रखने वाले लेखक संजीव चंदन इस मामले पर द मूकनायक को बताते हैं कि, अदालत अपने पूर्व प्रेसिडेंस पर जाएगा। अफरमेटिव एक्शन की पहली शुरुआत जब भारत सरकार ने की थी तो अदालत उसके खिलाफ गई तो 9वीं शेड्यूल को भारत में पहले संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया और वहां आरक्षण प्रावधान को डाल दिया गया। 9वीं शेड्यूल का ज्यूडिशियल रिव्यू नहीं हो सकता। आगे आरक्षण को लेकर कई बार न्यायालयों के निर्णय आए। 

संजीव बताते हैं कि, “1963 में तमिलनाडु में शैक्षणिक आरक्षण के संदर्भ में 50% कैप का निर्णय आया था। इसके बाद मंडल कमिशन की सिफारिशें लागू होने के बाद इंदिरा साहनी नाम से प्रसिद्ध जजमेंट में इसी कैप को कोर्ट ने दोहरा दिया और ओबीसी आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की आर्थिक सीमा भी तय कर दी। फिर भी सामाजिक न्याय की ताकतों ने समय-समय पर 50% की सीमा को तोड़ा। तमिलनाडु में 68% आरक्षण प्रावधान को कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार की मदद से एआईएडीएमके की जय ललिता सरकार ने 9वीं शेड्यूल में डलवाया।”

“अन्य राज्यों, जैसे हरियाणा, महाराष्ट्र आदि ने जब सीमा तोड़ी तो न्यायालय ने 50% के कैप के हवाले से इन सरकारों के निर्णय निरस्त कर दिए। बिहार सरकार के मामले में अदालत का रुख यही होने की संभावना है। इसे ही समझते हुए नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार सरकार ने केंद्र से 75% आरक्षण के निर्णय को 9वीं शेड्यूल में डालने का प्रस्ताव किया है। अदालत का विरोधाभास लेकिन सवर्ण आरक्षण, जिसे EWS नाम दिया गया है, के लिए 50% सीमा के उल्लंघन के मामले में सामने आया है। यह उल्लंघन केंद्र सरकार ने किया, लेकिन अदालत ने उसके निर्णय को निरस्त नहीं किया और उसे 9वीं शेड्यूल में डालने की जरूरत नहीं पड़ी। बिहार सरकार अदालत के इसी फैसले की दलील दे सकती है”, संजीव चन्दन ने द मूकनायक को बताया. 

विधानमंडल में शीतकालीन सत्र के दौरान आरक्षण की सीमा 75 प्रतिशत बढ़ाए जाने संबंधी विधेयक को पारित कराकर बिहार सरकार की तरफ से इसे लागू करने की घोषणा कर दी गई थी. राज्यपाल की मंजूरी के बाद यह तत्काल प्रभाव से प्रदेश में लागू भी हो गया. इसमें 10 प्रतिशत सामान्य वर्ग का आर्थिक आधार पर दिया जाने वाला आरक्षण और 65 फीसदी कोटा अन्य सभी आरक्षण के कोटे जो पहले 50 प्रतिशत था, को बढ़ाकर किया गया है. जिससे यह 60 फीसदी से बढ़कर 75 फीसदी हो गया है. 

नई आरक्षण सीमा में, अनुसूचित जातियों को 20 फीसदी, अनुसूचित जनजातियों को 2 फीसदी. पिछड़ा वर्ग को 18 और अत्यंत पिछड़ा वर्ग के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण रखा गया है. जबकि 35 प्रतिशत सीटों को सामान्य वर्ग के लिए रखा गया है जिसमें से 10 प्रतिशत सामान्य वर्ग के कमजोर लोगों के लिए पहले से ही तय है. 

आरजेडी प्रवक्ता एवं राष्ट्रीय महासचिव, महिला प्रकोष्ठ और पीएचडी रिसर्च स्कालर प्रियंका भारती मामले पर द मूकनायक को बताती हैं कि, “हम तो खैर यह मानते नहीं कि सिविल सोसायटी के लोगों की ऐसी हरकत हो सकती है. जिन्होंने इस आरक्षण सीमा के खिलाफ याचिका दाखिल की है. जिन वंचित तबकों को उनका अधिकार नहीं मिला, उनका प्रतिनिधित्व नहीं मिला, अब जब उनको उनके हिस्से का अधिकार मिल रहा है, तो ये कौन सी सिविल सोसाइटी के लोग हैं जिनको प्रॉब्लम हो रही है? ये सिविल सोसाइटी के लोग नहीं हो सकते हैं. ये मेंटल सोसाइटी के लोग हो सकते हैं। जिनको अपने तक जब सब कुछ मिले तो बहुत बढ़िया होता है, पर जब वही अधिकार जो सालों से लोगों से छीना गया, उन लोगों को इतने समय बाद वह अधिकार अब सरकार देने की कोशिश कर रही है तो उसको रोकने के लिए, स्टे करवाने के लिए तरह-तरह से पैतरे आजमा रहे हैं। मुझे तो जहाँ तक लगता है ये सिविल सोसाइटी के लोग नहीं हैं। ये बीजेपी के भेजे हुए एजेंट हैं.कि किसी भी तरह से सामाजिक न्याय ना होने पाए बिहार में….!!”

“मुझे जहाँ तक पता है वह (सिविल सोसायटी के याचिकाकर्ता) 65% पर क्वेश्चन कर रहे हैं। उन्होंने 10% EWS को उसमें जोड़ा ही नहीं है। उस केस में जो बारीकी है, वो 65% वाले पर चैलेन्ज कर रहे हैं कि इतना कैसे बढ़ा दिया गया है”, प्रियंका ने कहा. 

प्रियंका भारती ने कहा, “जिसका जितना संख्या है, रिप्रेजेंटेशन है, उसके हिसाब से बढ़ाएंगे। 10% वालों पर तो उन्होंने कोई सवाल नहीं उठाया, जबकि आप क्वेश्चन अगर उठा रहे हैं तब तो आप कैप के ऊपर सवाल कर रहे है ना ये 50% का कैप कैसे टूट गया. इंदिरा गाँधी सहनी जजमेंट में जो 1993 में लगाया गया था कि 50% से ऊपर रिजर्वेशन हो ही नहीं सकता है तो ये कैप जिस समय ईडब्ल्यूएस रिजर्वेशन लागू हुआ था, उसी समय टूट चुका था.” 

“सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ पर तो ईडब्लूएस रिजर्वेशन को आपने गरीबी के आधार पर दे दिया है, जबकि आरक्षण कभी भी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम या प्रोग्राम नहीं था। आरक्षण हमेशा इसलिए दिया गया कि जो वंचित तबका है, जिसको न पानी पीने की इजाजत मिली, ना बोलने की इजाजत मिली, ना बराबरी में रखने की इजाजत मिली, ना वो कहीं घोड़े पर बैठ सकता है, ना वो अपनी इच्छा से शादी करेगा। तो ऐसे लोगों को सशक्त करने के लिए आरक्षण दिया गया है, और आपने उसको मनरेगा अभियान में कन्वर्ट कर दिया EWS लाकर,” आरजेडी प्रवक्ता ने कहा.

“तमिलनाडु में 69% रिजर्वेशन पहले से ही है. तो वहाँ पर भी तो इसको ब्रेक किया जा चुका है. जब हम राइट टू क्वालिटी की बात करते हैं तो जो भी रिजर्वेशन देने का तरीका है वो सिर्फ नंबर्स नहीं होगा। किसी भी व्यक्ति का कितना संख्या है, किसी जाति या वर्ग का कितना संख्या है, वो उसका पैमाना नहीं होगा। लेकिन साथ में एक और चीज़ डिस्क्लेमर में दिया हुआ है की उनका जो रिप्रजेंटेशन है, ऐड्मिनिस्ट्रेशन में, नौकरियों में, वो उसका पैमाना होगा। तो हम तो वो भी रिपोर्ट में देख चुके हैं, कि जितने भी ओबीसी, एससी-एसटी हैं, उनका जो रिप्रजेंटेशन है, सरकारी नौकरियों में, नौकरियों में वो कहाँ है. उनकी संख्या के अनुपात में तो वह न के बराबर है”, प्रियंका भारती ने कहा. 

“जो डेढ़ लाख वेकैंसी अभी आ रही है बिहार में सरकारी नौकरी में शिक्षकों की, उसमें भी ये जो नया वाला रिजर्वेशन पॉलिसी है, उसको हम लागू कराने जा रहे हैं। इन्फैक्ट जितनी भी नई बहाली आएगी सब में ये रिजर्वेशन पॉलिसी लागू होगा। हमारा यही पूरा का पूरा फोकस है की हर जगह सबको इक्वल रिप्रजेंटेशन मिले। उसके लिए हम काम कर रहे हैं। तेजस्वी जी लगातार कहते आए हैं कि हम तो A टू Z की पॉलिटिक्स करते हैं। हम किसी को छोड़ नहीं रहे हैं.” आरजेडी प्रवक्ता प्रियंका भारती ने द मूकनायक को बताया.

पूर्व सांसद और असंगठित श्रमिक एवं कर्मचारी कांग्रेस (केकेसी) के अध्यक्ष डॉ. उदित राज बिहार में 75 प्रतिशत आरक्षण सीमा बढ़ाने और उसके खिलाफ याचिका दाखिल होने के मामले पर द मूकनायक से बातचीत करते हुए बताते हैं कि, “जब शासन-प्रशासन में सबकी भागीदारी बनेगी तो संसाधनों का वितरण होगा, इनकम आयेगी। उस इनकम से मार्केट बढ़ेगा, बाज़ार बढ़ेगा, इंडस्ट्रियल प्रोडक्ट्स ख़रीदे जाएंगे, तो अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। इसके अलावा, समाज में संतुलन होगा। एक कमजोर और एक बहुत मजबूत वाला सामाजिक भेदभाव ख़त्म होगा।”

डॉ. उदित राज बिहार सरकार द्वारा आरक्षण पर किये गए पहल पर आगे कहते हैं कि, “इससे प्रशासन में सभी वर्ग के लोग होंगे तो न्याय मिल सकेगा। राजनैतिक रूप से अच्छे से अच्छे जनप्रतिनिधि को चुना जाना संभव हो पाएगा।”

“इसे बीजेपी इंडायरेक्टली (अप्रत्यक्ष रूप से) रोक रही ही. डायरेक्ट सामने नहीं आ रही है. जब राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना की बात कही थी तब मोदी जी का जो पिछड़ापन का ढोंग था वह भरभरा कर गिर गया. बीजेपी का जो हिंदुत्व का एजेंडा है वह काउंटर होता हुआ नजर आ रहा है. अब जब जातिगत जनगणना हुई तो वह बौखलाए हुए हैं.” डॉ. उदित राज ने द मूकनायक से कहा. 

आपको बता दें कि, इससे पहले जदयू अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह 'ललन' ने कहा कि उन्हें सामाजिक रूप से वंचित जातियों के लिए कोटा में हालिया बढ़ोतरी के खिलाफ पटना उच्च न्यायालय में दायर याचिका के पीछे 'भाजपा का हाथ' नजर आता है। ललन ने यह बयान उन खबरों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए दिया कि पिछले हफ्ते एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिस पर उचित समय पर सुनवाई होगी। 

"यह सब भाजपा का काम है। जो पार्टी आरक्षण विरोधी है। उसने स्थानीय निकाय चुनावों में अत्यंत पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को चुनौती देने के लिए अपने समर्थकों को उकसाया था। लेकिन इस डिज़ाइन को विफल कर दिया गया और नगरपालिका चुनाव ईबीसी के लिए आरक्षित सीटों के साथ आयोजित किए गए, "उन्होंने सोमवार को संवाददाताओं से कहा।

“बीजेपी फिर से काम पर थी जब नीतीश कुमार सरकार द्वारा आदेशित जाति सर्वेक्षण को पटरी से उतारने की कोशिश की गई थी। जब भाजपा समर्थकों द्वारा दायर याचिकाएं योग्यता के आधार पर नहीं टिक सकीं, तो केंद्र ने हस्तक्षेप किया और भारत के सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में सर्वेक्षण का विरोध किया,'' उन्होंने कहा. 

जद (यू) प्रमुख ने विश्वास व्यक्त किया कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत कोटा सहित आरक्षित सीटों की मात्रा बढ़ाकर 75 प्रतिशत करने के हाल ही में पारित कानूनों को अदालत द्वारा बरकरार रखा जाएगा।

इस बीच, भाजपा के वरिष्ठ नेता और बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी ने भी एक बयान जारी कर आरोप लगाया कि उनकी पार्टी को बदनाम करने के लिए राज्य में सत्तारूढ़ महागठबंधन के इशारे पर कोटा में बढ़ोतरी के खिलाफ जनहित याचिका दायर की गई थी। मोदी ने यह भी कहा कि ओबीसी कोटा पहली बार बिहार में 1970 के दशक में पेश किया गया था, जब 'जनसंघ (भाजपा की पूर्ववर्ती) सत्ता साझा कर रही थी और कांग्रेस विपक्ष में थी।'

बीजेपी नेता ने यह भी बताया कि 'केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने वास्तव में 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस कोटा शुरू करके जमीनी काम किया है, जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा रखी गई 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन है। इसके बिना, बिहार सरकार कभी भी एससी, एसटी, ओबीसी और ईबीसी के लिए कोटा नहीं बढ़ा सकती थी।'

राजद की राष्ट्रीय प्रवक्ता कंचना यादव द मूकनायक को बताती हैं कि, बिहार सरकार ने जातिगत सर्वे कराकर फिर उस डाटा के आधार पर आरक्षण को 60 प्रतिशत से बढ़ाकर 75 प्रतिशत कर दिया है। सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने 75 प्रतिशत आरक्षण को हाई कोर्ट में इस तर्ज पर चुनौती दी है कि यह आरक्षण के 50 फीसदी नियम के खिलाफ है। पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा की बात की थी। लेकिन 1992 में नौ-न्यायाधीशों की बेंच ने इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ केस में सुप्रीम कोर्ट ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण पर निर्णय लेते हुए, 50 प्रतिशत की सीमा स्वीकार की थी। हालाँकि, उस फैसले में, अदालत ने माना था कि इस सीमा का उल्लंघन "असाधारण स्थितियों" में किया जा सकता है।

"50 प्रतिशत सीमा का उल्लंघन करते हुए खुद सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को संवैधानिक ठहराया है। अगर कोई मुख्यधारा से नहीं जुड़ा है तो उसे मुख्यधारा में लाने के लिए 50 प्रतिशत नियम का उल्लंघन किया जा सकता है। इस आधार पर बिहार में आरक्षण बढ़ाना किसी भी नियम के खिलाफ नहीं है। इसी नियम के तहत तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। बिहार जातिगत सर्वे और आर्थिक सर्वे के डाटा के आधार पर यह आरक्षण दिया गया है जो सुप्रीम कोर्ट के द्वारा खुद कहा गया है कि 'असाधारण स्थितियों' में आरक्षण की सीमा बढ़ाई जा सकती है," कंचना यादव ने कहा.

बिहार सरकार द्वारा आरक्षित सीटों की मात्रा बढ़ाकर 75 प्रतिशत करने की संवैधानिक स्थिति

पिछड़ी जातियों के लिए कोटा बढ़ाकर 75% करने के बिहार सरकार के फैसले की संवैधानिकता एक जटिल मुद्दा है जिसपर अदालत में चुनौती दिया गया है। ऐसे कई कारक हैं जिन पर अदालतें अपना निर्णय लेते समय विचार कर सकती है, जिनमें शामिल हैं:

जाति-आधारित आरक्षण पर 50% की सीमा: सुप्रीम कोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में जाति-आधारित आरक्षण पर 50% की सीमा तय की है। हालाँकि, इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं, जैसे कि उन राज्यों के लिए जहां पिछड़ी जातियों की बड़ी आबादी है। बिहार एक ऐसा राज्य है, जिसकी 50% से अधिक आबादी पिछड़ी जातियों से है।

प्रायोगिक आंकड़े: बिहार सरकार ने यह तर्क देकर बढ़े हुए कोटा को उचित ठहराया है कि यह राज्य में आयोजित व्यापक जाति जनगणना पर आधारित है। हालाँकि, कुछ आलोचकों ने जनगणना के आंकड़ों की सटीकता पर सवाल उठाया है।

योग्यतातंत्र पर प्रभाव: बढ़े हुए कोटा का योग्यतातंत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने की संभावना है, क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि गैर-आरक्षित श्रेणियों के छात्रों और नौकरी आवेदकों के लिए कम सीटें उपलब्ध होंगी।

न्यायालयों को अपना निर्णय लेते समय इन कारकों पर सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता होगी। संभव है कि वे बिहार सरकार के फैसले को बरकरार रखेंगे, या फिर उसे रद्द कर देंगे. यह भी संभव है कि वे इस मामले को आगे विचार के लिए राज्य सरकार को वापस भेज देंगे।

यहां बिहार सरकार के फैसले के पक्ष और विपक्ष में तर्कों इस तरह से हैं:

पक्ष में तर्क

  • पिछड़ी जातियों को होने वाले ऐतिहासिक और सामाजिक नुकसान को दूर करने के लिए बढ़ा हुआ कोटा आवश्यक है।

  • कोटा प्रायोगिक आंकड़ों पर आधारित है जो बिहार में पिछड़ी जातियों के व्यापक सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को दर्शाता है।

  • यह सुनिश्चित करने के लिए कोटा आवश्यक है कि पिछड़ी जातियों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व का उचित मौका मिले।

खिलाफ में तर्क

  • बढ़ा हुआ कोटा जाति-आधारित आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की 50% सीमा का उल्लंघन करता है।

  • कोटा योग्यता पर आधारित नहीं है और यह शिक्षा और सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता को नुकसान पहुंचाएगा।

  • कोटा से गैर-आरक्षित श्रेणियों को और नुकसान होगा, जो पहले से ही नौकरियों और शैक्षिक अवसरों के लिए बढ़ती प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहे हैं।

  • बिहार सरकार का फैसला संवैधानिक है या नहीं, इसका फैसला आखिरकार अदालत ही करेगी. इस फैसले से बिहार के लाखों लोगों के जीवन पर काफी असर पड़ने की संभावना है.

पिछड़ी जातियों के कोटा वृद्धि को चुनौती देने वाली अब तक की कोर्ट में याचिकाएं

भारत में पिछड़ी जातियों के लिए कोटा में वृद्धि को चुनौती देते हुए भारत के विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिकाएँ दायर की गई हैं। इन याचिकाओं में तर्क दिया गया है कि वृद्धि संविधान के सामाजिक न्याय और समानता के आदेश का उल्लंघन करती है, और इससे अन्य जातियों को और नुकसान होगा।

बिहार: नवंबर 2023 में, पिछड़ा वर्ग, अत्यंत पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण को 50% से बढ़ाकर 65% करने के बिहार विधानमंडल के फैसले को चुनौती देते हुए पटना उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई थी। याचिका में तर्क दिया गया है कि यह बढ़ोतरी असंवैधानिक है क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% आरक्षण सीमा से अधिक है।

इस महीने नवंबर 2023 में, पिछड़ा वर्ग, अत्यंत पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण 50% से बढ़ाकर 65% करने के बिहार सरकार के फैसले को चुनौती देते हुए पटना उच्च न्यायालय में एक और जनहित याचिका दायर की गई। इस याचिका में तर्क दिया गया है कि वृद्धि मनमानी और भेदभावपूर्ण है, और यह शिक्षा प्रणाली की योग्यता को नुकसान पहुंचाएगी।

राजस्थान: फरवरी 2019 में, राजस्थान उच्च न्यायालय में गुज्जरों और चार अन्य समुदायों को शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में 5% आरक्षण देने के राजस्थान विधानसभा के फैसले को चुनौती देते हुए दो याचिकाएँ दायर की गईं। याचिकाओं में तर्क दिया गया है कि यह वृद्धि असंवैधानिक है क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% आरक्षण सीमा से अधिक है।

ओबीसी के लिए आरक्षण 21% से बढ़ाकर 26% करने के राजस्थान विधानसभा के फैसले को चुनौती देते हुए राजस्थान उच्च न्यायालय में दो याचिकाएँ दायर की गई हैं। याचिकाओं में तर्क दिया गया है कि बढ़ा हुआ आरक्षण जाति-आधारित कोटा पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% की सीमा का उल्लंघन है।

अन्य राज्य: पिछड़ी जातियों के लिए कोटा में वृद्धि को चुनौती देने वाली याचिकाएँ कर्नाटक, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों में भी दायर की गई हैं।

सर्वोच्च न्यायालय की याचिकाएँ

अजय कुमार सिंह बनाम भारत संघ: एक व्यक्ति द्वारा दायर यह याचिका मध्य प्रदेश में ओबीसी के लिए बढ़ाए गए आरक्षण को चुनौती देती है। याचिका में तर्क दिया गया है कि बढ़ा हुआ आरक्षण उचित नहीं है और यह संविधान के सामाजिक न्याय के आदेश का उल्लंघन करता है।

अंजलि पवार बनाम भारत संघ: एक व्यक्तिगत दायर यह याचिका महाराष्ट्र में ओबीसी के लिए बढ़ाए गए आरक्षण को चुनौती देती है। याचिका में तर्क दिया गया है कि बढ़ा हुआ आरक्षण किसी प्रायोगिक आंकड़ों पर आधारित नहीं है और मनमाना है।

न्यायालय के निर्णय

अभी तक पिछड़ी जातियों के लिए कोटा बढ़ाने पर कोई अंतिम अदालती फैसला नहीं आया है. बिहार और राजस्थान में याचिकाएँ अभी भी लंबित हैं, और अन्य राज्यों में याचिकाएँ अभी तक उच्च न्यायालयों द्वारा स्वीकार नहीं की गई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान मामले में एक अंतरिम आदेश जारी किया है, जिसमें उच्च न्यायालय की याचिकाओं पर सुनवाई होने तक गुर्जरों और चार अन्य समुदायों के लिए 5% आरक्षण के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी गई है।

निकट भविष्य में सुप्रीम कोर्ट पिछड़ी जातियों के लिए कोटा बढ़ाने के मुद्दे पर सुनवाई कर सकता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इन मामलों के नतीजों का भारत में आरक्षण प्रणाली पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।

आरक्षण कोटे पर राज्य सरकारों के फैसले पर अतीत में न्यायालयों का रुख

गुजरात राज्य में Youth For Equality (YFE), जाति आधारित नीतियों और आरक्षण यानी सकारात्मक कार्रवाई के खिलाफ एक भारतीय संगठन है। इसकी स्थापना 2006 में कई भारतीय विश्वविद्यालयों के छात्रों द्वारा की गई थी। यह जाति-आधारित नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन और कानूनी चुनौतियों का आयोजन करता है। यूथ फॉर इक्वेलिटी द्वारा गुजरात हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई थी. उच्च न्यायालय ने 2021 में याचिका खारिज कर दी, जिसमें कहा गया कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (ईबीसी) के लिए आरक्षण प्रदान करने का निर्णय राज्य की विधायी क्षमता के भीतर था। 20 जनवरी 2023 को, सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में जाति आधारित जनगणना करने के लिए बिहार सरकार की अधिसूचना को चुनौती देने वाली विभिन्न दलीलों पर विचार करने से इनकार कर दिया। जाति-आधारित सर्वेक्षण के खिलाफ यूथ फॉर इक्वेलिटी समूह सहित कई याचिकाकर्ताओं द्वारा उक्त मामले पर याचिका दायर की गई थी।

तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) (DMK) द्वारा दाखिल याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में वन्नियार समुदाय के लिए 10% सहित पिछड़े वर्गों के लिए 69% आरक्षण प्रदान करने के तमिलनाडु सरकार के फैसले को बरकरार रखा।

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में मराठों को 12% आरक्षण देने के महाराष्ट्र सरकार के फैसले को बरकरार रखा। इसी तरह उच्च न्यायालय ने 2021 में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (ईबीसी) के लिए 16% आरक्षण प्रदान करने के कर्नाटक सरकार के फैसले को बरकरार रखा। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण देने के मध्य प्रदेश सरकार के फैसले को भी बरकरार रखा।

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