पटना। बिहार (Bihar) के सहरसा जिला स्थित सौर बाजार से एक खबर निकलकर सामने आ रही है। बताया जा रहा है कि पिता की मृत्यु पर बेटों ने एक बड़ा फैसला लेते हुए कहां कि हम लोग ना तो कर्मकांड करेंगे और ना ही भोज भात का आयोजन करेंगे। उनका यह भी कहना था की मृत्यु भोज के बदले वे लोग गांव में लाइब्रेरी खोलने पर विचार कर रहे हैं और यहां कंप्यूटर भी लगाने की सोच रहे हैं। यह बात जब गांव के लोगों को पता चली तो उन्होंने परिवार का सामाजिक बहिष्कार (Social boycott of family) कर दिया।
सहरसा (Saharsa) के सौर बाजार थाना क्षेत्र की चंडोर पश्चिमी पंचायत में एक गांव है जिसका नाम है खोकसाहा भगवानपुर (Khoksaha Bhagwanpur village) है। अधिवक्ता अजय आजाद के पिता की मृत्यु हुई तो उन्होंने अपने भाइयों के साथ विचार विमर्श कर फैसला लिया कि मृत्यु भोज का आयोजन नहीं करेंगे और ना ही कोई कर्मकांड का दिखावा किया जाएगा।
अजय आजाद का यह भी आरोप है कि गांव के लोगों ने उन पर भोज करने और कर्मकांड करने का दवाब बनाया। जिस पर जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि हम बहुजन समाज से जुड़े लोग हैं कर्म कांड और पूजा पाठ पर विश्वास नहीं करते हैं। मृत्यु भोज जैसी कुरीतियां को मिटाने के लिए हम अभियान चला रहे हैं।
अजय के इस फैसले का उनके दो भाई विजय भगत और डॉक्टर शशि जायसवाल ने भी समर्थन दिया है। इन लोगों का कहना है कि पिता की बीमारी में लाखों रुपए खर्च हो चुके हैं। अब भोज भात का आयोजन कर कर्ज और नहीं बढ़ाना चाहते हैं।
स्थानीय लोगों ने पूर्वजों द्वारा चलती आ रही इस प्रथा को करने का अजय आजाद पर दबाव बनाया। ग्रामीणों ने कहा कि पुरखों द्वारा चलती आ रही परंपरा को इन लोगों ने बंद करने का प्रयास किया है। हम लोग इसका समाज से बहिष्कार करेंगे। हम लोगों ने इन पर भोज के लिए कोई दबाव नहीं बनाया था। हमने केवल आत्मा की शांति के लिए कर्मकांड करने के लिए दबाव जरूर बनाया था।
तेरहवीं संस्कार के तहत कम से कम तेरह ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। पंडितों की ओर से बताई गई वस्तुएं मृतक की आत्मा की शांति के लिए ब्राह्मणों को दान में दी जाती हैं। आत्मा की तृप्ति के लिए लोगों को मृत्यु भोज दिया जाता है। दिक्कत तब होती है जब यह हैसियत दिखाने का अवसर बन जाता है।
सामाजिक कार्यकर्ता अवधेश बताते हैं परिवार में किसी वरिष्ठ की मृत्यु होती है तो घर के सबसे बड़े बेटे की पगड़ी बंधती है। इसमें थाली में सभी पीहर पक्ष के लोगों को कैश रखना होता है। यहां पर दिखावा शुरू हो जाता है। कोई लाख तो उसके जवाब में दूसरा दो लाख रखता है। एक.एक घर से थाल में 5 से 10 लाख रुपये तक रखे जाते हैं। राजस्थान से ताल्लुक रखने वालीं सोनाली बदला नाम ने बताया कि हमारे यहां तेरहवीं संस्कार में सोना दान में दिया जाता है। कई लोग मृत्यु भोज के लिए आए हुए लोगों को भाजी का डिब्बा और बर्तन भी देते हैं।
राजस्थान के सभी इलाकों और विशेष कर ग्रामीण अंचलों में यह परम्परा रही है कि किसी की मृत्यु के निश्चित दिनों के बाद उसके परिजन मृत्युभोज का आयोजन करते हैं। यह भारत में अन्य प्रदेशों में भी होता है। इस आयोजन में परिजनों के अलावा मृतक का परिवार अपने सम्बन्धियों तथा गाँव-मोहल्ले और समाज के लोगों को आमंत्रित करता है।
इसका उद्देश्य यह होता है कि जिस भी घर में मृत्यु हुई है। उसके यहाँ से आना-जाना पुनः सामान्य हो गया है और शोक का काल समाप्त हो गया है। हालाँकि इस रीति में समस्या तब आई जब यह समाज में दबाव डाल कर करवाया जाने लगा। ऐसे में जो परिवार इस आयोजन में सक्षम नहीं थे उन पर कभी-कभी कर्जे का भी बोझ चढ़ जाता था।
हालाँकि, ऐसा नहीं है कि हिन्दुओं में ही मृत्युभोज का आयोजन होता है, मुस्लिमो में चेहल्लुम का आयोजन किया जाता है। यह मृतक की मौत के 40 दिन के बाद आयोजित होता है, जिसमें लोगों को खाने पर बुलाया जाता है।
इसको लेकर राजस्थान में राजस्थान मृत्युभोज निवारण अधिनियम वर्ष 1960 में आया। इसके अंतर्गत नुक्ता, मोसर और चेहल्लुम जैसे आयोजनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस कानून के तहत मृत्युभोज का आयोजन करने और उसमें भाग लेने, दोनों को गैरकानूनी घोषित किया गया। इसके उल्लंघन पर ₹1000 और एक वर्ष तक सजा का प्रावधान किया गया। इसका उद्देश्य यह था कि मृत्युभोज के कारण किसी परिवार पर आर्थिक बोझ ना पड़े।
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