राजस्थानः काली बाई भील-आदिवासियों में शिक्षा की अलख जगाने वाली 'वीर बाला'

जन्म जयंती विशेषः आदिवासी बहुल डूंगरपुर जिले के ग्रामीण अंचल में वीरता का पर्याय बनी बालिका
काली बाई भील.
काली बाई भील.Historical Dungarpur
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जयपुर। आजादी से पहले जब राजस्थान के आदिवासी इलाकों में साजिश के तहत शिक्षा के उजियारे को जुलमत के अंधेरे से मिटाया जा रहा था। पाठशालाओं में तालाबन्दी कर गुरुजनों को घसीट कर मारा-पीटा जा रहा था। सरकारी दहशतगर्दी के उस माहौल में राजस्थान के डूंगरपुर जिले के छोटे से गांव रास्तापाल की काली बाई भील अपने गुरु को बचाने के लिए हाथ में हंसिया लेकर हुकूमत के सैनिकों से अकेले भिड़ गई थी।

रास्तापाल गांव की पाठशाला के गुरु सेंगाभाई की जान बचाते हुए काली बाई भील उस समय के जुल्मी शासन की बंदूक की गोलियों की शिकार हुई। 20 जून 1947 को उसने प्राण त्याग दिए। बीते मंगलवार को काली बाई भील का बलिदान दिवस था, लेकिन न तो सरकारी स्कूलों में काली बाई भील के बलिदान को याद किया गया न ही आदिवासियों की बेहतरी का दम भरने वाले संगठनों में चर्चा हुई।

राजस्थान में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए काली बाई भील स्कूटी सरकारी योजना को छोड़ दें तो किताबों में कहीं भी काली बाई भील के बलिदान को नहीं पढ़ाया जाता। यह विचारणीय है। आदिवासी काली बाई भील के बलिदान के इतिहास को आखिर क्यों बिसरा दिया गया? इसको लेकर द मूकनायक ने पूर्व सहायक प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय एवं स्वतंत्र लेखन एवं आदिवासी रचनाकार डॉ. हीरा मीणा से बात की। मीणा ने कहा कि वह इस संबंध में कई बार लिख चुकी हैं। यही सवाल उन्हें भी कचोटता है। आखिर काली बाई भील के बलिदान को इतिहासकारों ने क्यों छिपाया है।

मीणा कहती हैं कि जान की बाजी लगाकर 13 साल की मासूम ने हाथ में रखी हंसिया से पाठशाला के अध्यपाक सेंगाभाई की जान बचाकर अंग्रेजों की एक टुकड़ी को भगाया था। देश के लिए प्राणों का बलिदान देने वाले अदिवादियों को इतिहास के पन्नों से गायब कर दिया गया है! उन्होंने कहा कालीबाई भील के बलिदान का इतिहास हमें पढ़ाया गया होता तो क्या आज हमारी बच्चियों को देश प्रेम और की प्रेरणा नहीं मिलती ?

मीणा ने कहा आजादी से दो महीने पहले ब्रिटिश हुकूमत और डूंगरपुर महारावल लक्ष्मणसिंह की साजिशों और आदेशों के कारण आदिवासी अंचल के शिक्षा के प्रकाश स्तम्भ पाठशालाओं को जबरन बंद करवाया जा रहा था। वे नहीं चाहते थे कि आदिवासियों के बच्चों को किसी भी प्रकार की शिक्षा मिले। उन्हें ड़र था कि आदिवासी बच्चे शिक्षा प्राप्त करके अपने हक अधिकारों की बात करेंगे। उनके गुलाम-बेगारी बनकर नही रहेंगे।

वे उन्हें उनके पुरखों के गौरवशाली इतिहास से भी अनभिज्ञ रखना चाहते थे। जबकि सच्चाई यह है कि डूंगरपुर को 13वीं शताब्दी में वीर योद्धा डूंगरीया भील के द्वारा बसाया गया था। संसार की सबसे प्राचीन अरावली पर्वतमाला, ढुंढाड़ क्षेत्र और आस-पास के क्षेत्रों में सिंधुघाटी सभ्यता के वंशज भील, मीणाओं का साम्राज्य स्थापित था, जिसको राजपूतों ने छल-कपट और कुटनीति से हथियाया था।

वीर बाला कालीबाई भील कलसुआ डूंगरपुर जिले के रास्तापाल गांव की एक भील बालिका थी। उनके पिता का नाम सोमभाई भील था तथा मां का नाम नवली बाई था। वे किसान थे। जिनका खेत रास्तापाल गांव के समीप ही था। वे खेती से ही अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे।

कालीबाई कलासुआ
कालीबाई कलासुआ

कालीबाई के पिता सोमाभाई गोविंदगुरू के आदर्शों से बहुत प्रभावित थे। आदिवासियों में फैली हुई सामाजिक कुरीतियों को मिटाने एवं उनमें जाग्रति लाने के लिए गोविन्दगुरू द्वारा बनाई हुई ‘सम्प सभा’ से प्रभावित होकर उन्होंने कालीबाई को पाठशाला भेजना शुरू किया था। कालीबाई भी पाठशाला से लौटकर अपने माता-पिता के घर और खेती के कार्यों में हाथ बंटाती थी।

आजादी से पूर्व ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ देशभर में आदिवासियों ने ही सैकड़ों युद्ध लड़े थे। वहीं ब्रिटिश गुलामी को नकारते हुए उनको नाकों चने चबवाये थे। इसी कारण देशभर के आदिवासियों पर अपराधी जनजाति अधिनियम लगाकर समकालीन रजवाडों और अंग्रेजों का भारत में क्रूरता और अत्याचार बढ़ता जा रहा था। राजे-रजवाड़े अपने क्षेत्र की ही जनता का बुरी तरह से दमन किया करते थे। 17 नवम्बर, 1913 को मानगढ़ पहाड़ी पर भील-मीणा आदिवासियों का नरसंहार किया गया था। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार लगभग 1500 से अधिक आदिवासियों को मौत के घाट उतारा था। सैकड़ों लहूलुहान होकर कुछ समय बाद वे भी काल के ग्रास बन गए।

काली बाई भील.
काली बाई भील.

डूंगरपुर के महारावल नहीं चाहते थे आदिवासी पढ़े

राजस्थान की रियासत डूंगरपुर के महारावल चाहते थे कि उनके राज्य में शिक्षा का प्रसार ना हो। क्योंकि शिक्षित होकर व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाता है। उस समय अनेक शिक्षक अपनी जान पर खेलकर विद्यालय चलाते थे।

नानभाई खांट और सेंगाभाई जो रास्तापाल गांव में पाठशाला चला रहे थे। विद्यालय के लिए नानभाई खांट ने अपना भवन दिया था। इससे महारावल नाराज रहते थे। उन्होंने कई बार अपने सैनिक भेजकर नानभाई और सेंगाभाई रोत को विद्यालय बंद करने के लिए कहा, पर स्वतंत्रता और शिक्षा के प्रेमी यह दोनों महापुरुष अपने विचारों पर दृढ़ रहे। यह घटना 17 जून 1947 की है। डूंगरपुर का एक पुलिस अधिकारी कुछ जवानों के साथ रास्तापाल गांव पहुंचा। उसने नानभाई खाट और सेंगाभाई रोत को पाठशाला तुरंत बंद करने की चेतावनी दी। जब वह नहीं माने तो पुलिस ने बेत और बंदूक की बट से सेंगाभाई और नानभाई को बेरहमी से मारना शुरू कर दिया। दोनों मार खाते रहे और घायल हो गये, लेकिन विद्यालय बंद करने पर राजी नहीं हुए।

नानभाई का वृद्ध शरीर इतनी क्रूर मार सह नहीं सका और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। इतने पर भी पुलिस अधिकारी का क्रोध शांत नहीं हुआ। उसने सेंगाभाई को अपने ट्रक के पीछे रस्सी से बांध दिया। उस समय वहां गांव के अनेक लोग उपस्थित थे। डर के मारे किसी को बोलने का साहस नहीं हो रहा था। उसी समय एक 13 वर्षीय भील बालिका कालीबाई वहां पहुंची। वह बालिका उसी विद्यालय में पढ़ती थी। इस समय वह जंगल में अपने पशुओं के लिए घास काट कर ला रही थी। उसके हाथ में तेज धार वाला हंसिया चमक रहा था।

उसने जब नानभाई और सेंगाभाई को इस दशा में देखा तो वह चिंतित होकर वहीं पर रुक गई। उसने पुलिस अधिकारी से पूछा कि इन दोनों को किस कारण पकड़ा गया है। पुलिस अधिकारी पहले तो चुप रहा, पर जब कालीबाई ने बार-बार पूछा तो उसने बता दिया कि महारावल के आदेश के विरुद्ध विद्यालय चलाने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है। कालीबाई ने कहा कि विद्यालय चलाना अपराध नहीं है, शिक्षा ही हमारे विकास की कुंजी है।

आदिवासी समाज में शिक्षा की रोशनी लाने के लिए प्रजामंडल आंदोलन के आह्वान पर हर गांव में विद्यालय खोले जा रहे हैं। पुलिस अधिकारी उसे इस प्रकार बोलते हुए देखकर बौखला गया। उसने कहा कि विद्यालय चलाने वाले को गोली मार दी जाएगी। कालीबाई ने कहा तो सबसे पहले मुझे गोली मारो, इस वार्तालाप में गांव वाले भी उत्साहित होकर महारावल लक्ष्मणसिंह के विरूद्ध नारे लगाने लगे। अंग्रेज अधिकारी के आदेश से ट्रक से बांधकर सेंगाभाई को बुरी तरह घायल अवस्था में घसीटने लगे। यह देखकर कालीबाई आवेश में आ गई और उसने हंसिए के एक ही वार से रस्सी काट दी।

पुलिस अधिकारी के क्रोध का ठिकाना ना रहा। उसने अपनी पिस्तौल निकाली और कालीबाई पर गोली चला दी। कालीबाई के सीने पर गोली लगने से लहूलुहान होकर गंभीर रूप से घायल होकर गिर पड़ी। इस लोमहर्षक घटना से सभी गांव वाले आक्रोशित हो गए।

आदिवासियों ने मारू ढोल बजा दिया और जिसके पास जो हथियार था वो लेकर पुलिस की तरफ पथराव शुरू कर दिया। मारू ढ़ोल बजाना युद्ध का संकेत था। जिससे डरकर पुलिस वाले भाग गए। आदिवासियों ने सेंगाभाई रोत और कालीबाई को चिकित्सालय पहुंचाया। नानभाई खांट की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो चुकी थी। उनका अन्तिम क्रियाकर्म रास्तापाल गांव में किया गया। दो दिन के बाद 20 जून, 1947 को कालीबाई भी शिक्षा की अलख को जगाकर शहीद हो गयी। इस प्रकार कालीबाई के अमर बलिदान से शिक्षक सेंगाभाई रोत के प्राण बच गए।

उसके बाद पुलिस वालों का उस क्षेत्र में कभी आने का साहस नहीं हुआ। कुछ ही दिन बाद देश स्वतंत्र हो गया। आज डूंगरपुर और संपूर्ण राजस्थान में शिक्षा की ज्योति जल रही है। उसमें कालीबाई और नाना भाई जैसे बलिदानियों का योगदान अविस्मरणीय हैं। उस वीर बलिदानी बाल ज्वाला को आदिवासी समाज बारंबार जोहार के साथ नमन करता है और उसकी यश गाथा को सदा-सदा के लिए अनंतकाल तक अमर रखने का संकल्प दोहराता है।

एनबीटी ने छापी पुस्तक लेकिन पाठ्यक्रम में नहीं कालीबाई

राजस्थान बोर्ड के स्कूली पाठ्यक्रम के लिए अनेक पाठ एव पुस्तकों के रचयिता एवं वरिष्ठ इतिहासकार डॉ श्री कृष्ण जुगनू बताते हैं कि वागड़ की वीरबाला काली बाई पर वर्तमान में कोई पाठ स्कूलों में नहीं पढ़ाया जा रहा है। द मूकनायक से बातचीत में डॉ जुगनू कहते हैं कि वर्ष 1997-98 में उदयपुर में कलेक्टर सलाउद्दीन अहमद के कार्यकाल में कालीबाई पर एक नाटिका लिखवाई गयी थी जिसके लिए करीब पचास हजार रुपये का बड़ा बजट अलग से जारी किया गया था। मशहूर लेखक रिज़वान ज़ाहीर उस्मान ने नाटक लिखा था जिसका बेणेश्वरधाम मेले में मंचन भी किया गया। 

वे कहते हैं कि बहुत दुःख की बात है कि सामाजिक विज्ञान में श्रीलंका में जातीय संघर्ष और वियाना में विद्रोह विद्यार्थियों को पढ़ाया जा रहा है जबकि स्थानीय नायक नायिकाओं और चरित्रों की पूर्ण उपेक्षा हो रही है। डॉ जुगनू बताते हैं कि नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा कालीबाई पर एक बुकलेट छापी गयी थी जो सभी विद्यालयों की लाइब्रेरी में उपलब्ध है। इसी तरह राजस्थान प्रौढ़ शिक्षा समिति ने भी इस वीरबाला पर पुस्तक प्रकाशित की है। 

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