मूकनायक की 102वीं वर्षगांठ :  जब-जब दलितों की आवाज दबाया जाएगा तब-तब एक “मूकनायक” खड़ा होगा 

मूकनायक की 102वीं वर्षगांठ
मूकनायक की 102वीं वर्षगांठ
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"जब-जब देश में .. समाज में औऱ एक संस्थान में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ो की आवाज को दबाया जाएगा तब-तब एक नया "मूकनायक" उभरकर सामने आएगा।" – बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर

नई दिल्‍ली। 'मूकनायक' के 102 साल पूरे हो गए हैं। इस खुशी में देशभर में बाबा साहेब के विचारों के प्रसार के लिए कार्यक्रमों का आयोजन किया गया है। देशभर के आंबेडकरवादियों ने एकजुट होकर देश के अलग-अलग हिस्सों में जश्न मनाया। अगर आपमें से कोई ऐसा है जो यह नहीं जानता कि 'मूकनायक' क्या है तो हम आपको इसके बारे में आगे बताते हैं; 'मूकनायक' पाक्षिक अखबार था। इसे 102 साल पहले बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने शुरू किया था। 31 जनवरी 1920 को इसका पहला अंक छपा था।

बाबा साहब और उनकी पत्रकारिता

बहुत कम ही लोग ये जानते हैं कि डॉ. भीमराव आंबेडकर एक पत्रकार भी रह चुके हैं। सोमवार 31 जनवरी, 2022 को बाबा साहेब की पाक्षिक पत्र को 102 साल पूरे हो गए। आज के दिन बड़ी संख्या में बहुजन समाज के चिंतकों, विचारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों ने बाबा साहेब के विचारों के प्रचार के लिए अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। आज से 102 साल पहले बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने मूकनायक नाम से अपना पहला अखबार निकाला था। 31 जनवरी 1920 को मराठी में पाक्षिक यानी 15 दिन में निकलने वाले अखबार की 102वीं वर्षगांठ की आप सबको ढेरों बधाई।

मूकनायक से तात्पर्य है कि, मूक लोगों का नायक। साफ शब्दों में कहें तो जिसकी आवाज दबा दी जाए उसे बुलंद करने का काम ही मूकनायक का लक्ष्य था। बाबा साहेब का ये मानना था कि देश के उस वर्ग जिसके अधिकारों की बात कोई नहीं करता उसके लिए एक प्लेटफॉर्म होना चाहिए। एक जरिया जिससे देश के दलितों को जागरुक किया जाए और उन्हें एकजुट किया जाए, और इस तरह मनुवादी विचारधारा के खिलाफ उन्होंने मूकनायक चला कर मोर्चा खोला था।

मराठी में छपी बाबा साहब की मूकनायक की एक प्रति / फोटो साभार: ट्विटर
मराठी में छपी बाबा साहब की मूकनायक की एक प्रति / फोटो साभार: ट्विटर

आज की स्थिति को दर्शाता बाबा साहब का सम्पादकीय

मूकनायक का पहला सम्पादकीय बहुत सालों पहले लिखा गया था, लेकिन उसके शब्द आज भी समाज में दलितों की स्थिति पर सटीक बैठते हैं। 'मूकनायक' के पहले संपादकीय में बाबा साहब ने मनुवादी विचारधारा के औचित्य के बारे में लिखा था।

उन्होंने लिखा था, 'बहिष्कृत लोगों पर हो रहे और भविष्य में होने वाले अन्याय के उपाय सोचकर उनकी भावी उन्नति और उनके मार्ग के सच्चे स्वरूप की चर्चा करने के लिए वर्तमान समाचार पत्रों में जगह नहीं है। ज्यादातर समाचार पत्र खास जातियों के हित साधन करने वाले हैं। इतना ही नहीं कभी-कभी वे दूसरी जाति के लोगों के खिलाफ भी लिखते हैं।'

आज के समय में भी मीडिया हाउस से लेकर न्यूजपेपर में दलितों, पिछड़ो, आदिवासियों को तभी जगह मिलती है जब उऩके साथ कोई अपराध होता है या फिर उनके द्वारा कोई अपराध होता है। ये लाइमलाइट में तो आते हैं लेकिन यह भारत की ऐसी सच्चाई को दर्शाता है जिससे हम मुंह मोड़ना चाहते हैं। सच्चाई यही है कि हम विकसित और विकासशील की लड़ाई में लगे हैं लेकिन आज भी हम ऊंच-नीच, सवर्ण और शूद्र, जाति-धर्म की रुढिवादी विचारधारा से जकड़े हुए हैं। आज हम एक चोला पहन कर चल रहे हैं, एक मॉडर्न होने का चोला जो अपने हितों के लिए कभी भी उतार कर रख दिया जाता है।

मूकनायक की क्या आवश्यकता है?

इस खास मौके पर ये जानना बहुत जरुरी है कि आखिरकार मूकनायक की आवश्यकता उस वक्त के समाज में और आज के मौजूदा समाज में जरूरी क्यों है?

जब बात दलितों, पिछड़ों और आदिवासी समुदाय के नेताओं की आती है तो हमारे सामने बड़े ही कम और गिने चुने नेता ही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इनके मुद्दों को सामने रखने के लिए कोई आया ही नहीं और जो आया वो इनकी समस्याओं को ऊपरी सतह से जान कर चला गया जबकि समस्या तो गहराई या यू कहें जमीनी स्तर पर थी। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर वो नेता थे जो इसी समुदाय से आते थे और उन समस्याओं को जानते भी थे। वह जानते थे कि दुनिया में कलम की ताकत से बड़ी कोई ताकत नहीं होती।

बाबा साहेब ने देश को एक करने की ठानी और इसलिए संविधान के रुप में इंसानियत का सबसे बड़ा हथियार दिया। अफसोस यही है कि इंसान ही उस हथियार का दुरुपयोग करने लगा और आज के मौजूदा समय में तो उसी संविधान पर सवाल उठ रहे हैं। मूकनायक उस वक्त वो आवाज था जो अल्पसंख्यों के दिलों दिमाग में गूंजती थी। वो आवाज जिसे सामने लाने के लिए कोई जरिया नहीं था। आज के समय में भी दलितों और शोषितों के लिए न जाने ऐसे कितने मूकनायक निकलकर सामने आ रहे हैं।

बाबा साहेब के विचारों को आगे बढ़ाते हुए मूकनायक के 102 साल पूरे होने का जश्न मनाया जा रहा है। मनुवादी विचारधारा के खिलाफ अंबेडकरवादी विचारधारा की ये लड़ाई न जाने कितने सालों से चली आ रही है और आगे भी चलती रहेगी। जब-जब देश में .. समाज में औऱ एक संस्थान में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ो की आवाज को दबाया जाएगा तब-तब एक नया "मूकनायक" उभरकर सामने आएगा।

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