नई दिल्ली। भारतीय ग्रामीण परिवेश में अगर कोई दुल्हन ब्याह कर ससुराल आए और उसे खाना बनाना न आता हो तो उसकी मुश्किलों का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है, लेकिन वही महिला एक दिन खाना बनाने और खिलाने को ही अपना रोजगार बना ले तो इससे सकारात्मक और प्रेरक बात क्या होगी।
यह कहानी ऐसी ही एक महिला की है। 59 वर्षीय आशा देवी की 15 वर्ष की आयु में शादी हो गई थी. उनके माता-पिता पंजाब के रहने वाले थे, शादी के बाद वह अपने ससुराल दिल्ली आई। आशा दिल्ली के अम्बेडकर नगर में ढाबा चलाती हैं और रोज सैकड़ों लोगों को खाना बनाकर खिलाती है। इससे न सिर्फ उनकी रोजी-रोटी चलती है, बल्कि निम्न आय वर्ग के सैकड़ों लोगों को बहुत ही कम दामों पर भरपेट भोजन मिलता है।
आशा बताती हैं– "मैं पहले पंजाब में रहती थी, बहुत कम उम्र में शादी हो गई, फिर मैं दिल्ली आई, ससुराल में पहले दिन मुझसे खिचड़ी बनवाई गई, वो भी मुझसे स्वादिष्ट नहीं बन सकी. मुझे रिश्तेदारों के सामने जलील किया गया, और खिचड़ी सबको दिखाई गई. ताने मारे गए। मुझे बहुत बुरा लगा। तब मैंने धीरे-धीरे गृहशोभा पत्रिका पढ़कर खाना बनाना सीखा। आज लोग मेरे खाने की तारीफ करते हैं.
खुद की कमाई से अपने ख्वाब पूरे करना अधिकतर महिलाओं का सपना होता है, लेकिन आशा का ढाबा खोलना शौक नहीं मजबूरी थी. वह बताती है –"कभी मेरे पति का बड़ा होटल था, उस होटल पे काम करने के लिए हमने 6 लड़के रखे थे, सब कुछ ठीकठाक चलता था, मेरा पति शराबी था और उसे जुआ खेलने की लत थी। धीरे-धीरे मेरे पति ने होटल बेच दिया, हमारे दो घर थे वे भी बिक गए। उसके बाद पूरा परिवार इधर-उधर हो गया, हम भी किराए पे रहने लगे. फिर एक दिन मेरा शराबी पति भी छोड़ कर चला गया."
मैंने सिलाई व कढ़ाई का काम सीखा. 8 साल तक बच्चे पालने के लिए छोटी-मोटी नौकरी करती रही. फिर मैंने 1993 में यहां दुकान (ढाबा) शुरू की, अपने साथ एक हेल्पर रखा. खाने में एक दाल एक सब्जी और तंदूरी रोटी बनाना शुरू किया, मैगजीन पढ़ कर मैंने धीरे-धीरे सारा खाना बनाना सीख लिया.
आशा की दुकान हमेशा से फुटपाथ पे रही है, जिसके लिए पुलिस वालों को हफ्ता भी दिया, वह अपने साथ हुई एक घटना का ज़िक्र करते हुए बताती हैं- "पुलिस वालों ने बहुत परेशान किया. 2017 में थाने में एक नया अफसर आया था, सबसे 500 महीना, हमसे हज़ार रुपये मांगता था, बोलता था, तू विधवा होकर इतना बोलती है, कम बोला कर. उसके खिलाफ मैंने हौज़खास थाने में पुलिस शिकायत की, मामला कोर्ट में गया, मुझे भी बुलाया गया, फैसले के बाद उसे नौकरी गंवानी पड़ी, मैंने उसे ऐसा सबक सिखाया कि आज तक कोई पुलिसवाला मुझसे हफ्ता लेने एक बार भी नहीं आया."
आशा के 4 बच्चे हैं, एक लड़का, तीन लड़की, सब शादीशुदा हैं. वह बताती हैं कि बेटा उनके साथ नहीं रहता. उनकी एक बेटी नेहा अब तलाकशुदा है और वह अपने 2 बच्चों के साथ उनके पास रहती हैं. माँ और बेटी मिल के ढाबा चलातीं हैं और दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं, ढाबे से इतनी कमाई हो जाती है जितने में उनका गुज़ारा हो सके, उनका कहना है की वह सेविंग्स नहीं कर पातीं।
आशा अच्छे लोगों से अच्छा बर्ताव व बुरे लोगों को सबक सिखाने में कभी पीछे नहीं रहतीं. वह बताती हैं कि उनके ढाबे पर कई शराबी खाना खाने आते हैं और खाना खाने के बाद पैसा देने में चिक-चिक करते हैं, गाली गलौच भी करते हैं. उन्होंने कई शराबियों को भी सबक सिखाया है, आज के दौर में एक महिला को हर तरह से मज़बूत होना बहुत ज़रूरी है ताकि उनका शोषण न हो सके, आशा अपने हक़ के लिए कभी नहीं दबतीं।
एक ढाबा चलाने के लिए कई लोगों की जरूरत होती है। हालांकि यह ढाबा मां-बेटी ही मिलकर चलाती है। वे दोनों सुबह 5 बजे से लेकर शाम 6 बजे तक इस काम में लगी रहती हैं. आशा घर जैसा स्वाद वाला खाना बनाती हैं, जिसके लिए वह घर पर ही सब्जियां पकाती हैऔर फिर उसे ठेले पर रख कर रोड के किनारे लगाती हैं, जिसके बाद वह ग्राहक की डिमांड पर दिन भर रोटियां बनती खिलाती रहती हैं, खाना बहुत स्वादिस्ट व घर जैसा होता है, पेट भर खाने के लिए 40 से 60 रुपये लगते हैं.
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