Opinion, Story: Savita Anand
बीते 75 वर्षों में देश में सैद्धांतिक रूप से आत्मनिर्भरता, समृद्धि, उत्कर्षता और तरक्की के जो बदलाव आए उसका श्रेय आंबेडकर के संविधान को ही जाता है।
भारत रत्न बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्मोत्सव भारत और विश्व भर में जिस धूमधाम से मनाया जाता है शायद ही किसी अन्य शख्सियत का मनाया जाता हो. इस अवसर पर हर साल दिल्ली के संसद मार्ग पर भव्य आयोजन होता है जिसमें देश-दुनिया के तमाम हिस्सों से लाखों की तादाद में डॉक्टर अंबेडकर के अनुयाइयों का हुजूम इस जलसे में शामिल होता है. इसी बात से उनके कद का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, यह ऐसा अद्भुत दृश्य होता है जिसकी झलक मात्र ही अंबेडकर के चाहने वालों को चेहरे पर मुस्कान बिखेर देती है. हो भी क्यों न, बाबा साहेब द्वारा लिखित संविधान ने हमें नागरिक होने की पहचान जो दी है. बीते 75 वर्षों में देश में सैद्धांतिक रूप से आत्मनिर्भरता, समृद्धि, उत्कर्षता और तरक्की के जो बदलाव आए उसका श्रेय आंबेडकर के संविधान को ही जाता है।
उन्होंने देश को ऐसा बेहतरीन लिखित दस्तावेज दिया जो हर व्यक्ति को स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अलावा वह सभी हक़ और अधिकार देता है जिसमें समानता और बंधुत्वता के साथ समाजवादी विचार भी है, जिसकी बदौलत आज हम गर्व से सर ऊंचा कर अपनी हर बात और कृत्य को अंजाम देते हैं. परन्तु बीते कुछ वर्षों में क्या आपको नहीं लगता इसमें कुछ कमी आई है और इसकी मूल संरचना पर लगातार प्रहार हो रहा है?
आज देश को फिर से उसी राजनैतिक और सांप्रदायिक द्वेष में झोंकने की कोशिश की जा रही है जिसे देश ने स्वतंत्रता संग्राम और भारत पाकिस्तान विभाजन के समय महसूस किया था. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान दुनिया ने जिस तबाही के मंज़र को देखा था उसका दर्द सभी ने झेला. इतिहास के पन्नों में दर्ज जापान और जर्मनी का क्या हश्र हुआ उस दर्द को भी महसूस किया जा सकता है. जिस तरह जापान में परमाणु बम के हमले के बाद सरकार के आत्मसमर्पण के फैसले के बावजूद कई सैनिकों द्वारा आत्महत्या कर ली गई, वह उस द्वेष और दर्द को बताता है जिसे उस वक़्त हर व्यक्ति ने झेला. लेकिन एक ओर जहाँ इसने साम्राज्यवादी जापान का अंत किया तो दूसरी ओर इसने एक शांतिपूर्ण जापान को भी जन्म दिया. तब जापान ने 'शांति संविधान' अपनाया था और इसी पर चलकर उसका पुनर्निर्माण हुआ और आज वह फिर से विश्व की सबसे प्रमुख ताकतों में शुमार है.
यही बात जर्मनी पर भी लागू होती है. नाजी काल और हिटलर की दी यातनाओं के चलते कैसे जर्मनी को तबाही का सामना करना पड़ा किसी से छिपा नहीं है. परन्तु इस त्रासदी से सीख लेते हुए जर्मनी ने 70 साल पहले जब संविधान लिखा, तो मानव गरिमा को सबसे ज्यादा अहमियत दी और खुद को दुनिया के मानचित्र पर नई शक्ति के रूप में पेश किया. जर्मनी के संविधान की शुरुआत "मानव गरिमा अलंघनीय है" जैसे शब्दों से होना इस बात की गवाही देता है. जर्मनी और जापान ने इस द्वेष की चपेट में आने के बाद खुद को पुनः स्थापित करने की दिशा में जब कदम रखा तो खुशहाली की तरफ अपनी सारी ताकत झोंक दी जिसके सुखद नतीजे आज हम सबके सामने है.
भारत में जिस समय संविधान लिखने की जिम्मेदारी अंबेडकर को सौंपी गई उस समय देश में राजनैतिक और सांप्रदायिक द्वेष चरम पर था. इसी आपसी द्वेष और भारत-पाकिस्तान के विभाजन के दर्द के बीच अंबेडकर के लिए संविधान का मसौदा तैयार करना कितना चुनौतीपूर्ण रहा होगा इसका अंदाज़ा बखूबी लगाया जा सकता है. लेकिन अंबेडकर ने संविधान में हर उस बात का ख्याल रखा जिससे देश में आपसी सद्भावना स्थापित हो और देश तरक्की की राह पर चल नए कीर्तिमान गढ़ कर सके. वे असाधारण कोटि के दूरदर्शी थे, जिन्होंने अपना समस्त जीवन समग्र भारत की कल्याण-कामना, एक संतुलित समाज की रचना करने में लगा दिया. इसी वजह से उन्हें निर्विवाद रूप से संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष चुना गया. कई देशों के संविधान का अध्ययन करने के बाद भारत की विविधता को ध्यान में रखते हुए संविधान का मसौदा तैयार किया गया, जिसमें उन्हें 8 साल 11 महीने और 18 दिन का समय लगा.
यहाँ इस बात का जिक्र करना भी जरुरी है कि, कैसे आज़ाद हुआ भारत धीरे-धीरे खुद को पटरी पर लाया जबकि उसके भी वही घाव वही दर्द थे जो पाकिस्तान के थे. परन्तु पाकिस्तान खुद को उस द्वेष से बाहर नहीं निकाल सका नतीजतन वह आज एक 'फेल्ड स्टेट' की ओर अग्रसर है. भारत में ऐसा इसलिए संभव नहीं हो सका क्योंकि अंबेडकर के संविधान में आपसी द्वेष का कोई स्थान ही नहीं था।
अंबेडकर की दूरदर्शीता का प्रमाण इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने तालमेल का सृजन करते हुए सभी नागरिकों के समान अधिकार, सामान अवसर का ध्यान रखा जिसमें धुर्वीकरण के लिए कोई जगह नहीं थी, नतीजतन सभी जाति, धर्म, संप्रदायों के बीच आपसी द्वेष की भावनाएं घट गई.
अंबेडकरवाद ही समाधान
आज देश जिन हालातों से गुजर रहा है वह पुनः उसी राजनैतिक और सांप्रदायिक द्वेष के मुहाने पर आ खड़ा हुआ जिसे हम 75 बरस पीछे छोड़ आए थे. आज हमें फिर से विचार करने की ज़रूरत है कि कहीं हम संविधान को अक्षरशः अपनाने में चूक तो नहीं रहे हैं. आज से दस साल पहले भारत की स्थिति कहाँ थी और आज कहाँ है इस पर आज गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है.
आज की मौजूदा परिस्थितियों का समाधान सिर्फ़ अंबेडकरवाद से निकाला जा सकता है, कैसे? हमें इस बात पर विचार करने की ज़रूरत है. अंबेडकरवाद को आज लोग अलग-अलग तरह से परिभाषित करते हैं लेकिन सही मायनों में अंबेडकर विचार सभी नागरिकों को सिर्फ़ और सिर्फ़ समान प्रतिनिधित्व देने की बात करता है, जिसमें सबका हित बराबर हो और यही बात भारत के संविधान की अद्भुत प्रस्तावना में भी दर्ज है. जो कहती है कि हम, भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं. लेकिन अफ़सोस ! हम आज तक ऐसा पूरी तरह से अमल करने में विफल रहे हैं.
जिस भारतीय को दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका ने "ज्ञान का प्रतीक" (Symbol Of Knowledge) कहकर सम्मान दिया हो और वहां की संसद में जिसकी प्रतिमा लगाई गई हो ऐसे अंबेडकर के विचारों पर आज चलने की बजाये हमारे ही देश में धुर्वीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है.
अंबेडकर को आज हमें बार-बार पढ़ने की जरुरत है. उन्होंने अपने जीवन में जो भी झेला उन पर उसका गहरा असर पड़ा और उन्होंने ठान लिया, वह समता और बराबरी लाकर रहेंगे. इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हमें समानता का अधिकार दिया (Right to Equality), जो आज भी पूर्ण रूप से लागू नहीं हो पाया है. देश को अगर तरक्की और विश्व गुरु बनाने के रास्ते पर ले जाना है तो हमें बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के संविधान को पूर्ण रूप से अमल में लाना होगा।
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