[दलित हिस्ट्री मंथ विशेष] महात्मा ज्योतिराव फुले: जनकल्याणकारी कार्यों और वैज्ञानिक विचार मानवता का चिरकाल तक करते रहेंगे मार्गदर्शन

[दलित हिस्ट्री मंथ विशेष] महात्मा ज्योतिराव फुले: जनकल्याणकारी कार्यों और वैज्ञानिक विचार मानवता का चिरकाल तक करते रहेंगे मार्गदर्शन
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11 अप्रैल 1827  को महाराष्ट्र में जन्मे महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले को आधुनिक भारत शिल्पकार कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। सच्चे अर्थों में वह एक समाज सुधारक थे। उनके जनकल्याणकारी कार्य और विज्ञानवादी विचार मानवता का अनंतकाल तक मार्गदर्शन करते रहेंगे।

फुले ने वह दौर देखा जब दलितों को अपनी परछाई से किसी को भी अपवित्र करने की अनुमति नहीं थी मतलब जिस रास्ते पर वे यात्रा करते थे, उसे पोंछने के लिए उन्हें अपनी पीठ पर झाड़ू लगाना पड़ता था। उस समय देश में व्याप्त वर्ण व्यवस्था व जाति व्यवस्था ने सामाजिक जीवन के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया था। हर समाज जातियों के अलग-अलग खेमे में विभाजित था, जिसके कारण आपस में भाईचारे का अभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था। पिछड़ी जातियों की दुर्दशा थी, इंसानों के बीच पशुवत भेदभाव और छुआछूत व्याप्त था।

उन्होंने छुआछूत (अस्पृश्यता) और जाति व्यवस्था के उन्मूलन और महिलाओं और उत्पीड़ित जाति के लोगों को शिक्षित करने के सहित कई क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

वह और उनकी पत्नी, सावित्रीबाई फुले, भारत में महिला शिक्षा के अग्रदूत थे। फुले ने लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल 1848 में पुणे में तात्यासाहेब भिडे के निवास या भिडेवाड़ा में शुरू किया था।

सत्यशोधक समाज की स्थापना

सत्यशोधक समाज (सोसायटी ऑफ ट्रुथ सीकर्स) 24 सितंबर 1873 को पुणे, महाराष्ट्र में अपने अनुयायियों के साथ ज्योतिबा फुले द्वारा स्थापित एक सामाजिक सुधार संस्था था। सबसे खास बात यह थी कि सभी धर्मों और जातियों के लोग इस संघ का हिस्सा बन सकते थे जो उत्पीड़ित वर्गों के उत्थान के लिए काम करता था।

इसका उद्देश्य महिलाओं, दलितों और अन्य वंचित समाज के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करना था। इस समाज के माध्यम से उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया और जाति व्यवस्था की निंदा की। सत्यशोधक समाज ने तर्कसंगत सोच के प्रसार के लिए अभियान चलाया और पुजारियों की आवश्यकता को खारिज कर दिया।

वर्ण व्यवस्था के सोपान में निचली श्रेणी में रखे गए जातियों के अधिकार के लिए उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना करने की जरुरत महसूस की थी। संस्था ने महाराष्ट्र में विशेष रूप से महिलाओं, किसानों और दलितों पर केंद्रित वंचित समूहों के लिए शिक्षा और सामाजिक अधिकारों और राजनीतिक पहुंच में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महात्मा ज्योतिराव की पत्नी सावित्रीबाई संस्था के महिला वर्ग की प्रमुख थीं। 

संस्था ने सभी मनुष्यों में निहित समानता पर जोर दिया, और एक ईश्वरीय शक्ति में विश्वास बनाए रखना, ईश्वर और मनुष्य के बीच किसी भी प्रकार के मध्यस्थ को अस्वीकार करना (यहाँ धार्मिक अनुष्ठानों में पुजारियों की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए), और जाति व्यवस्था को अस्वीकार कर दिया। संस्था ने पुरोहितों की सामाजिक और राजनीतिक श्रेष्ठता के खिलाफ तर्क भी विकसित किए।

हालाँकि, 1930 के दशक के दौरान संस्था भंग हो गई क्योंकि इसमें भागीदारी करने वाले अधिकांश लोग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में शामिल होने के लिए चले गए।

लड़कियों की शिक्षा की अनिवार्यता

फुले ने युवा विधवाओं को अपने सिर मुंडवाते हुए देखा, जिन्हें जीवन में किसी भी प्रकार के उत्सव, आनंद से दूर रहने की हिदायत थी। उन्होंने देखा कि कैसे दलित महिलाओं को नग्न नृत्य करने के लिए मजबूर किया गया था। उन्होंने असमानता को प्रोत्साहित करने वाली इन सभी सामाजिक बुराइयों को देखकर महिलाओं को शिक्षित करने का निर्णय लिया।

1848 में, 21 वर्ष की आयु में, फुले ने ईसाई मिशनरी सिंथिया फर्रार द्वारा संचालित अहमदनगर में एक लड़कियों के स्कूल का दौरा किया। इसी बीच 1848 में ही उन्होंने थॉमस पेन की पुस्तक राइट्स ऑफ मैन पढ़ी और सामाजिक न्याय की गहरी समझ विकसित की। उन्होंने महसूस किया कि शोषित जातियां और महिलाएं भारतीय समाज में दयनीय परिस्थितियों में थीं, और इनके समुचित शिक्षा व्यवस्था की अति आवश्यकता थी। इसके लिए उसी वर्ष, फुले ने सबसे पहले अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ना और लिखना सिखाया, और फिर इस दाम्पत्य ने पुणे में लड़कियों के लिए स्वदेशी रूप से संचालित पहला स्कूल शुरू किया।

पुणे के रूढ़िवादी उच्च जाति समाज ने लोगों ने उनके इस काम को स्वीकार नहीं किया। लेकिन कई भारतीयों और यूरोपीय लोगों ने उनकी उदारता से मदद की। पुणे में रूढ़िवादियों ने उनके अपने परिवार और समुदाय को भी बहिष्कृत करने के लिए मजबूर तक कर दिया। इस दौरान उनके दोस्त उस्मान शेख और उनकी बहन फातिमा शेख ने उन्हें आश्रय दिया। उन्होंने अपने परिसर में स्कूल शुरू करने में भी मदद की।

बाद में, फुले दंपत्ति ने महार और मतंग समुदाय के बच्चों के लिए स्कूल शुरू किए। 1852 में, तीन स्कूल संचालित थे, इन स्कूलों में 273 लड़कियां पढ़ रही थीं, लेकिन 1858 तक तत्कालीन विपरीत परिस्थितियों और रूढ़िवादी लोगों के लगातार विरोध के चलते सभी स्कूल बंद हो गए।

‘ब्राह्मणवाद मानवता के लिए अभिशाप’

महात्मा ज्योतिराव फूले जातिगत उत्पीड़न और कई सामाजिक बुराईयों के पीछे का कारक ब्राह्मणवादी व्यवस्था को मानते थे। महात्मा फूले ब्राह्मणवाद पर कठोर प्रहार करते हुए कहते हैं “ब्राह्मणवाद के कारण देश का शूद्र तथा अतिशूद्र आज भी बौद्धिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक दृष्टि से गुलाम है।”

वह मनुस्मृति के श्लोक (1-130) का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि, मनुस्मृति के अनुसार “शिक्षा का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है।” लगभग 150 साल पूर्व महात्मा फूले द्वारा 1873 में लिखित चर्चित पुस्तक “गुलामगिरी” में वह एक तरह से ब्राह्मणवाद को मानवता के लिए अभिशाप तक बताते हैं।

गुलामगिरी में वह जिक्र करते हैं कि, इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके लोगों को अपने घरों से, जमीन जायदाद से बेदखल किया गया और मूल निवासियों को अपना गुलाम (दास, दस्यु) बनाया और उनके साथ बड़ी अमानवीयता का रवैया अपनाया गया।

उन्होंने उक्त पुस्तक में धर्मग्रंथों का तार्किक परीक्षण किया है। वे काल्पनिक पात्र धोंडीराव के साथ प्रश्न-उत्तर के रूप में संवाद साधते हैं। संवाद की यह शैली पाठकों को बहुत प्रभावित करती है। यह पुस्तक पाठकों को मिथ्या जगत से निकालकर वास्तविक जगत का परिचय कराती है।

वह गुलामगिरी में लिखते हैं कि, उन ब्राह्मणों ने इन लोगों (दलित-पिछड़ी जातियों) के दिलों-दिमाग पर अपना प्रभाव, अपना वर्चस्व कायम रहे और स्वार्थ फलता-फूलता रहे, इसलिए उन्होंने कई तरह के हथकंडे अपनाए। ब्राह्मण-पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम करके इन्हें हमेशा-हमेशा के लिए अपना गुलाम बनाकर रखने के लिए कई बनावटी ग्रंथों की रचना करके कामयाबी हासिल की। उन नकली ग्रंथों में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि हमें जो विशेष अधिकार प्राप्त है, वे सब हमें ईश्वर द्वारा प्राप्त है। इस तरह का झूठ प्रचार उस समाज के अनपढ़ लोगों में किया गया और शूद्रादि-अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोए गए।

महात्मा ज्योतिराव फुले के लिए लोगों का नजरिया

“ज्योतिराव फुले सच्चे महात्मा थे।” — महात्मा गांधी

“यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि फुलेजी का ब्राह्मण ग्रंथों पर किया हुआ हमला अचूक था। फुलेजी द्वारा बनाया गया सत्य मनुष्य के हजार वर्ष के परिश्रम से वर्जित संस्कृति एवं ज्ञान का सार है।” — लक्ष्मणशास्त्री जोशी

“भारतीय लोकतंत्र में किसानों और मजदूरों की जैसे-जैसे उन्नति होगी, वैसे-वैसे ही इतिहास में महात्मा फुले का व्यक्तित्व अधिकाधिक उभरकर सामने आएगा।” — पं. जवाहर लाल नेहरू

“महात्मा फुले भारत की बुनियादी क्रांति के पहले महापुरुष थे, इसलिए वे आद्य महात्मा बुद्ध, महावीर, मार्टिन लूथर, नानक आदि के उत्तराधिकारी थे जिनका यह समर्पित जीवन आज के युग का प्रेरणास्रोत बना है।” — विश्वनाथ प्रताप सिंह, भूतपूर्व प्रधानमंत्री, भारत

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