यह बात सर्वविदित है कि आज के जैसे पहले के भारत में महिलाओं की स्थिति एक जैसी नहीं थी. हमें इतिहास के उन पन्नों को भी पलट कर पढ़ने की जरूरत है, जिससे हमें मालूम हो की हमारी माताओं, बहनों, बेटियों को समानता, आज़ादी और सामाजिक बुराइयों से छुटकारा कैसे मिला। भारत एक ऐसे दौर से भी गुजरा है जब हिंदू समाज में पुरुष और महिलाओं को तलाक का कोई भी क़ानूनी अधिकार नहीं था. पुरुषवादी सत्ता का वर्चस्व चरम पर था. उन्हें एक से ज्यादा शादी करने की आजादी थी वहीं विधवाएं दोबारा शादी नहीं कर सकती थीं। यहां तक कि विधवाओं को संपत्ति में अधिकार नहीं दिया गया था, साथी ही महिलाओं के प्रति अन्य कई सामाजिक बुराइयाँ भी व्यवहार्य में थीं.
आज जैसे हिंदू समाज महिलाओं को लेकर लोकतांत्रिक और उदार नजर आता है, वह कुछ दशकों पहले तक वैसा नहीं था. उस दौर में जब पहली बार लड़कियों की शिक्षा के लिए उनको स्कूल भेजने का अभियान चलाया गया तब उन परिवारों का परंपरावादी कट्टरपंथियों द्वारा धार्मिक तौर पर बहिष्कार करने के कई मामले भी सामने आये। सीधे तौर पर, तब लड़कियों को स्कूल भेजने वाले परिवारों का सामाजिक बॉयकाट होता था.
महिलाओं की ऐसी दशा देख बाबा साहब ने एक कानून बनाने की योजना बनाई जो उक्त सभी सामाजिक बुराईयों को मिटाने का काम करता। बाबा साहब आंबेडकर हिंदू कोड बिल पारित करवाने को लेकर काफी परेशान भी थे. तब बाबा साहब ने कहा था कि, “भारतीय संविधान (Indian Constitution) के निर्माण से अधिक दिलचस्पी व खुशी, मुझे हिंदू कोड बिल पास कराने में होगी.” हालांकि यह बिल उस समय पारित नहीं हो सका.
देश का संविधान बनाने में जुटी संविधान सभा (constituent Assembly) के सामने पहली बार 11 अप्रैल 1947 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल (Hindu code bill) पेश किया. लेकिन संसद के लगभग हर पुरुष सदस्य जिसमें कथित रूप से नेहरू और सरदार पटेल भी शामिल थे, इस बिल का विरोध किये। इस बिल के पेश होते ही सनातनी धार्मिक संगठनों से लेकर आर्य समाज के लोगों तक ने आंबेडकर का विरोध करना शुरू कर दिया. यह बिल ऐसी तमाम कुरीतियों को हिंदू धर्म से दूर कर रहा था जिन्हें परंपरा के नाम पर कुछ धार्मिक परम्परावादी जिंदा रखना चाहते थे. तमाम हिंदूवादी संगठन इन कुरीतियों को बरक़रार रखने की वकालत कर रहे थे.
इस बिल के मसौदे में महिलाओं को तलाक का अधिकार, बेटियों को जायदाद में हिस्सा और विधवाओं को संपत्ति का पूरा अधिकार देना शामिल था। इसमें, बेटी को उसके पिता की संपत्ति में अपने भाईयों के बराबर का हिस्सा मिलता. साथ ही अगर यह बिल पारित हो जाता तो 1951 में ही सती प्रथा और दहेज प्रथा को समाप्त करने की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम साबित होता। तमाम विरोध के बाद, बिल लैप्स हो गया (बिल पेश करने के बाद निश्चित समय पर उसपर ध्यान नहीं दिया गया) और बाबा साहब ने बिल पास न होने साहित अन्य मुद्दों को लेकर कानून मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
इस विधेयक में विवाह संबंधी प्रावधानों मुख रूप से दो प्रकार के विवाहों को मान्यता देता जिसमें —सांस्कारिक और सिविल शामिल था. इसमें हिंदू पुरूषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध और अलगाव संबंधी कानूनी प्रावधान शामिल थे. सही अर्थों में कहा जा सकता है कि हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार दिया जा रहा था. अगर कोई भी महिला और उसका पति किन्ही कारणों से एकदूसरे के साथ नहीं रहना चाहते तो बाबा साहब चाहते थे कि महिला को इस परिस्थिति में कानूनन पति से अलग होने का अधिकार प्राप्त हो।
हिन्दू कोड बिल में तलाक के लिए सात आधारों का प्रावधान दिया गया था. जिसके आधार पर तलाक की अर्जी लगाई जा सकती थी, जिसमें परित्याग, धर्मांतरण, रखैल रखना या रखैल बनना, असाध्य मानसिक रोग, असाध्य व संक्रामक कुष्ठ रोग, संक्रामक यौन रोग व क्रूरता जैसे आधार पर तलाक लिया जा सकता था.
बिल के मसौदों के आकलन हेतु 9 अप्रैल 1948 को इसे सेलेक्ट कमेटी (select committee) को अग्रेषित कर दिया गया, और 1951 को बाबा साहब ने पुनः बिल को संसद में पेश किया. इसपर संसद के अंदर और बाहर हंगामा मच गया. लोग इसकी आलोचना करने लगे। उस समय भारत का संविधान भी बनकर तैयार था. लेकिन देश का संविधान नया था और संसद के सदस्यों को जनता ने नहीं चुना था. बताया जाता है कि बिल पर संसद में तीन दिन तक बहस चली. हिंदू कोड बिल (Hindu code bill) का विरोध करने वालों का तर्क था कि संसद के सदस्य जनता द्वारा चुने हुए नहीं है इसलिए विधेयक को पास करने का इनको नैतिक अधिकार नहीं है.
संसद में जहां जनसंघ समेत कांग्रेस का हिंदूवादी धड़ा इसका विरोध कर रहा था तो वहीं संसद के बाहर हरिहरानन्द सरस्वती उर्फ करपात्री महाराज के नेतृत्व में इस बिल के खिलाफ बड़ा प्रदर्शन चल रहा था. अखिल भारतीय राम राज्य परिषद (All India Ram Rajya Parishad) के संस्थापक करपात्री ने बिल को हिंदू धर्म में हस्तक्षेप और बिल को हिंदू रीति-रिवाजों, परंपराओं और धर्मशास्त्रों के विरुद्ध बताया. उन्होंने इस बिल पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू (Prime Minister Jawaharlal Nehru) को वाद-विवाद करने की खुली चुनौती तक दे डाली थी. इस विरोध में आरएसएस, हिंदू महासभा औरअन्य हिंदूवादी संगठनों ने बिल के खिलाफ देश भर में प्रदर्शन किया। आरएसएस ने बिल के विरोध में दिल्ली में दर्जनों रैलियां आयोजित कीं थीं.
उल्लेख मिलता है कि, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इस बिल को पारित करवाना चाह रहे थे, लेकिन तमाम विरोध और आम चुनाव नजदीक होने के कारण वह इसे नजरंदाज कर दिए. हालांकि, फरवरी 1949 को संविधान सभा की बैठक में नेहरू ने कहा था, ‘इस कानून को हम इतनी अहमियत देते हैं कि हमारी सरकार बिना इसे पास कराए सत्ता में रह ही नहीं सकती.’
देश में पहला लोकसभा चुनाव 5 अक्टूबर 1951 और 21 फरवरी 1952 बीच हुआ. इसके बाद नेहरू ने हिंदू कोड बिल को कई हिस्सों में तोड़ कर इसमें कई शाखाएं बना दीं. 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट बनाया गया. जिसके तहत तलाक को कानूनी दर्जा, अलग-अलग जातियों के स्त्री-पुरूष को एक-दूसरे से विवाह का अधिकार और एक बार में एक से ज्यादा शादी को गैरकानूनी घोषित किया गया.
इसी क्रम में 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम (Hindu Adoptions and Maintenance Act) और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम (Hindu Minority and Guardianship Act) लागू हुए. इन सभी कानूनों को लाने का उद्देश्य महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देना था. इसके तहत पहली बार महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिया गया और लड़कियों को गोद लेने पर भी जोर दिया गया.
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